month vise
Saturday, November 25, 2017
Thursday, November 23, 2017
रमई काका -२
poem of Umesh chandra srivastava
कितने सुहाने दिन ,
जब हम स्वतन्त्र थे ,
सब कुछ कहने-चलने ,
खाने बताने के लिए।
मगर अब हम बड़े हो गए ,
यानि समझदारी के ,
उस पड़ाव पर खड़े हो गए ,
जहाँ सब नाप-तौल ,
जहाँ सब नफा मुनाफा ,
सब बचा खुचा को ,
बनाने के चक्कर में ,
सवांरने के लिए ,
सिर्फ स्वतंत्रता को छोड़कर। (जारी... )
कितने सुहाने दिन ,
जब हम स्वतन्त्र थे ,
सब कुछ कहने-चलने ,
खाने बताने के लिए।
मगर अब हम बड़े हो गए ,
यानि समझदारी के ,
उस पड़ाव पर खड़े हो गए ,
जहाँ सब नाप-तौल ,
जहाँ सब नफा मुनाफा ,
सब बचा खुचा को ,
बनाने के चक्कर में ,
सवांरने के लिए ,
सिर्फ स्वतंत्रता को छोड़कर। (जारी... )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem of Umesh chandra srivastava
Tuesday, November 21, 2017
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काव्य रस का मैं पुरुष हूँ
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