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Saturday, December 31, 2016

बीत गया है वर्ष पुराना ,नव नूतन अब आएगा

बीत गया है वर्ष पुराना ,नव नूतन अब आएगा।
यहाँ-वहां सब फूल बाग़ भी ,खिल-खिल कर मुस्काएगा।
अंशुमाली प्राची से भी ,वसुधा को दमकायेंगे।
इधर जनों में प्रेम भाव का ,अंकुर विस्तारित पाए।
राजनीति की अटखेली भी ,समतल भूमि पर झूमे।
उलट-बासी 'औ' तिकड़मबाजी , फुर-फुर से उड़ जाये यहाँ।
मौसम ने करवट तो ली है ,जन भी माधु मुस्काएगा।
उधर विरहणी न अब तड़पे ,विरह अग्नि की ज्वाला में।
सुन्दर उज्वल चेहरा वाला ,बच्चा भी हरषायेगा।
मधु रागों की राग रागिनी ,मधुवन जैसे फैले यहाँ।
आशुतोष की व्यापकता में ,पूरा जग भी झूम उठे।
मिथ्यवादिता जड़ से जाये ,सत्य आवरण खोल, बढ़े।
सद्बुद्धि से नेता पनपे ,यभी जगत बन पायेगा।
आओ मिलकर गीत यहाँ पर,खुशियों के हम सब गायें।
झूमे ,नाचें मस्ती में सब ,'औ' सबको भी मस्त करें।
नारी का सम्मान बढे ,'औ' नारी मुदित रहे यहाँ।
लोग-बाग़ की जननी वह तो ,बहन ,दुहिता मान बढ़े।
अपना प्यारा ध्वजा तिरंगा ,विश्व पटल पर लहराये।
वीर सपूत भी रणभूमी में ,अपना डंका बजवायें।
आकुल-व्याकुल रहें यहां न , सबमें पुलक विचार बने।
जड़ से दूषण मिटे यहाँ पर ,स्वास सरस सब हो जाये।
चोरी-ओरी की जड़ता भी ,समूल नष्ट हो जाये यहाँ।
हमको भारत देश है प्यारा ,भारत विश्व में है न्यारा।
प्यारे भारतवासी सुन लो ,भारत है सर्वोच्च यहाँ।
विश्व विदित है भारत गरिमा ,आगे बढे ,सम्मान मिले।
लोक हितों की बात सोचकर , जन-मन भी सब काम करें।
स्वार्थ-वार्थ को जड़ से फेको ,अपने में स्वाभिमान भरो।
यही बात व्यवहार ही पनपे ,नाव नूतन मय वर्ष रहे।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Friday, December 30, 2016

प्रेम दिल का मिलन केवल ,देहं तो आनंद है

प्रेम दिल का मिलन केवल ,देहं तो आनंद है। 
मन उमंगों का आवेशित ,देहं तो बस छंद है। 
रूप गागर -सागरों में ,रसासिक्त करता हुआ। 
देहं का भोला समर्पण पा हुआ मदमस्त है। 
प्रेम तो भक्ति है शक्ति ,मानवीय संवेदना। 
देहं तो पशुवत बनाती ,प्रेम देता दृष्टि है। 
प्रेम में जो पक गया सो ,बन गया अनमोल प्राणी। 
देहं में लिप्तीकरण तो ,भोग का आध्यात्म है। 
प्रेम का स्वर तो मधुर है, प्रेम तो बस त्याग है। 
देहं का मिलना बिछड़ना ,वासना का राग है। 
प्रेम तो अद्भुत क्षुधा है ,भर नहीं पाता कभी। 
देहं की सीमा निहित है ,बल गया वह राग भी। 
पर बताओ प्रेम में तो ,साँस तक अनुराग है। 
प्रेम है ईश्वर की वाणी ,प्रेम सब कुछ आज है। 
जो बना इस पथ का प्राणी ,उसका जीवन सार्थक। 
देहं के चक्कर जो भरमा ,वह गया इस लोक से। 
जहाँ जीवन की दशाएं ,दुर्दशाएँ बन गयी। 
इसी से मैं कह रहा हूं ,प्रेम तो बस प्रेम है। 
इसी पथ का बन के राही ,प्रेम से बस जी रहो। 
    






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Thursday, December 29, 2016

अधिकारों की जंग शुरू है

अधिकारों की जंग शुरू है ,
सत्ता के गलियारों में।
कोई मांगता हक़ -हकुक़ तो ,
कोई को रुतबा प्यारा है।
सरफ़रोशी की अब बातें ,
पढो किताबों में भाई।
सत्ता धरी चढ़ा-चढ़ा कर ,
बस क़ुर्बानी मांगे हैं।
अपना कुनबा सुखी रहे सब,
जनता मरे-खपे जी भर।
उसको मुआवजा दे-देकर के ,
अपना पीठ बजाते हैं।
ऐसा भी योद्धा क्या तुमने ?
रणभूमि में देखा है।
दूजे को ललकार कहे वह ,
अपना सुविधा से पोषित।
अपने लिए है नीति दूसरी ,
जनता को भरमाना बस।
मानों,प्यारे अब भी मानों,
सुधरो कुछ व्यवहारों में।
जो भी करो ,वही तुम बोलो ,
तभी काम चल पायेगा।
वरना आए वीर धुरंधर ,
कितने ही इस जगती पर।
ठहरा वही यहाँ पर ,वह ही ,
जिसने संयत बात कही।
मेरा तुमको भी सुझाव है ,
कहो वही ,जो खुद भी करो।
वरना नाहक मत भरमाओ ,
भागो ,चलो यहाँ से तुम।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव-

Wednesday, December 28, 2016

क्योंकि मैने उसको देखा

क्योंकि मैने उसको देखा ,
उसने भी मुझको है देखा। 
देख-दिखने में ही सारी ,
बात बनी, बिगड़ी जाती। 
सपन सजोये जो मन भीतर ,
बिखर-बिखर के खो जाते हैं। 
उसका मुखड़ा सुन्दर सा कुछ ,
अब सुंदरता ,लगी नहीं। 
शायद भाव हमारे भीतर ,
उसके प्रति कुछ खिसक गयी। 
उसके मन में-मेरा मुखड़ा ,
अच्छा है अब भी -क्या जाने ?
 मैंने अपनी बात बता दी ,
उसने तो कुछ कहा नहीं। 
न जाने अब कब सुधरेंगे-रिश्ते ,
जो अटपटे हुए । 
पता नहीं वह मौसम कैसे ,
देख-दिखाने में फिसला। 
अब तो उसका सुन्दर मुखड़ा ,
है अतीत की बात हुई। 
न जाने कब वर्तमान में ,
उसका मुख सुन्दर होगा। 
मन के भाव-विसरते,आते ,
न जाने क्या बात हुई ? 
जब वह फिर से सुन्दर दीखे ,
'औ ' मन के सब भाव जगे। 
तब वह रूप सलोनी कैसे ,
मुझे निहारेगी ,देखेंगे। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Tuesday, December 27, 2016

आंसू छलका, बीत राग की - 3

आंसू छलका, बीत राग की ,
याद पुरानी आयी है।

कहाँ मिलेगी अब जीवन में ,
उसकी वह मंजुल रातें।
रातों का था सफर सुहाना ,
जीवन की जो थाती है।
वाह रे!प्रकृती तेरी महिमा !!
रूप रंग के सागर तुम।
कब जीवन में आनंदित स्वर ,
कब रंगों का बदरंग रंग।
तेरी बातें-तू ही जाने ,
मुझको बस यह पता हुआ।
ऐसे जीवन ही चलता है ,
कोई आया यहाँ नया।
पतझड़ जैसे मौसम का भी ,
मूल्य रहा जीवन भर में।
वह रे! प्रकृती !!
तेरा रूप सलोना है।
मनभावन सा दर्शन तेरा ,
कभी धूप है, कभी है छाया।
कभी रात की अंधियारी है ,
जीवन भी चलता ऐसे।
कभी रूप की फुलवारी है ,
कभी विहंसते लोग यहाँ।
जीवन की इस चक्र धुरी पर ,
जन -मन आते-जाते हैं।
तेरा भी तो आना जाना ,
सबको यहाँ सुहाता है।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Monday, December 26, 2016

आंसू छलका, बीत राग की-2

आंसू छलका, बीत राग की ,
याद पुरानी आयी है। 

याद मुझे है उसका रुनझुन ,
मन को विभोरित कर जाता। 
मन के सरे तार-वार को ,
उसका मिलना ही भाता। 
एक बार की बात बताऊँ ,
हम दोनों गए संगम तट। 
वहां मिला था साधु-एक जो ,
आगत बात बताता था। 
उसने पुछा -साधु भईया ,
हम सब का है सफर कहाँ ?
झट वह बोला -
तुम छोड़ोगी पहले साथ। 
बाकी सुखमय जीवन है। 
दिवस सलोनी - मनुहारों में ,
कैसे समय गया-मेरा। 
आज आहुति देकर आया ,
उसको पच तत्व अर्पित। 
मन भी थोड़ा व्यथित हुआ था ,
उसे समर्पण कर आया। 
जहाँ से-रूप सलोनी आयी ,
वहां विदा मैं कर आया। 
अब तो सुधियों की झुरमुट में ,
उसकी सुध ,उसकी बातें। 
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:
:
:
:
:
:................................ शेष कल 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Sunday, December 25, 2016

आंसू छलका ,बीत राग की-1

आंसू छलका ,बीत राग की ,
याद पुरानी आयी है। 
सुधियों का वो मंजर-आलम ,
बरबस कौंध गया मन में। 
तन भी शिथिल हुआ अब कुछ तो ,
पर मन में बिहसन वह है। 
रूप दुलारी जब आयी थी ,
मेरे घर 'औ' आंगन में। 
भावों के सब पंख उगे थे ,
पछुआ मन बौराया था। 
सुबह-दुपहरी, शाम-भोर की ,
क्या सुध थी ,हम दो जाने ?
हरदम मन परसन को आतुर ,
लोक -लाज का भय भी था। 
पर वह रूप सलोनी चातुर ,
इधर-उधर मौका ताड़े -
आ जाती पहलु मेरे। 
:
:
:
.......शेष कल 




उमेश चंद्र श्रीवास्ताव- 

Saturday, December 24, 2016

सर्द हवाएं ,बौराये मन ,गलन बढ़ी है - 3

सर्द हवाएं ,बौराये मन ,गलन बढ़ी है।
सर्द निशा में शाल ,दुपट्टा ओढ़ खड़ी है।

पिता समझते थे बेटी अब तो हुई सायानी।
पर यह बोझिल पत्नी-कर रही नादानी।
दुहिता ने आवाज पकड़ ली -माँ से बोली -
मम्मी तुम पापा को कमरे में ले जाओ।
वहीँ तुम्हारा -तुम दोनों का खाना हूँ लाती।
बेटी कह कर चली गयी-दूजे कमरे में ,
माँ झट दौड़ पड़ी -लिपटी अपने प्रियवर से।
उधर प्रिया का भाव समझकर-प्रियवर बोले ,
धीरज धरो -समय होगा अनुपम हितकारी।
क्यों उतावली बनी -जरा कुछ पल तो ठहरो।
नहीं चलेगी तुरन्त-फुरंत यह मेहरबानी।
फिर क्या था ?
सब वही हुआ जो प्रिय को प्रिय था।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Friday, December 23, 2016

सर्द हवाएं ,बौराये मन ,गलन बढ़ी है-2

सर्द हवाएं ,बौराये मन ,गलन बढ़ी है।
सर्द निशा में शाल ,दुपट्टा ओढ़ खड़ी है। 

सहसा झोंका तेज हुआ ,बयार बौराई ,
इधर तनों में गर्म-मर्म की ऋतु गरमाई। 
सर्द हवाएं ,मन बौराये ,कैसे सुलझे ,
खड़ी सर्द मौसम में -बाहर बरामदे में ,
प्रिय पाहुन ,प्रियतम उसके -कब आएंगे। 
कब उसके तन-मन की उठती प्यास बुझेगी। 
सर्द हवाएं क्या लेंगी ,मौसम है ऐसा ?
मिलन-मिलन का भाव सर्द में बढ़ता जाता। 
क्या कर जाये प्रीत की रीति सुलगती ,बिहवल ,
और देखती चन्दा को-चकोर बनी वह। 
उसके चन्दा कब आएंगे-भान नही है ,
अब तो लगता उसको-मर्यादा का ध्यान नहीं है। 
तभी तुनुक कर वह बोली -दुहिता तुम जाओ। 
रात बहुत हो गयी -जाके अब तुम सो जाओ। 
वह क्या जाने -उसकी दुहिता अट्ठारह आने ?
समझ रही थी माँ के भाव -मगर क्या बोले ?
है मर्यादा तोड़ नहीं सकती वह परतें !
और उधर माँ -बिरह अग्नि को धीरे-धीरे ,
शांत करे -कैसे वह, कुछ समझ न पायी। 
तभी दूर-बाहर से कुछ आवाज है आयी ,
तपक दौड़ -वह भागी बहार जाकर देखा। 
प्रिय प्रियतम का मुखड़ा, सजा-सजा सा दिखता। 
बोली गलन बहुत है -जल्दी अंदर आओ ,
फिर वह बोली-बेटी से तुम जा सो जाओ। 
                                                         . 
                                                         . 
                                                         . 
                                                         . 
                                                          शेष कल......... 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Thursday, December 22, 2016

सर्द हवाएं , बौराये मन , गलन बढ़ी है

सर्द हवाएं , बौराये मन , गलन बढ़ी है।
सर्द निशा में शाल ,दुपट्टा ओढ़ खड़ी है।
चेहरे पर कुछ सुर्ख ,मगर लालीपन भी है।
अधरों पर मुस्कान ,खिली थी दोनों ऑंखें।
गालों पर भी चमक ,तनों में दमकम भी था।
और इधर से खड़ा देखता -मैं टुक-टुक था।
सर्द हवाओं से शालों का मंथर उड़ना ,
और उठा कर बाहों से -उसे फिर लपेटना।
क्रिया इसी में व्यस्त मगर कुछ अकुलाई थी।
अंदर की चाहत सिमट बहार आयी थी।
उसके दोनों कर -किसी का आहट पाकर।
करने को बेचैन ,उसे आलंगित करने।
उधर गगन में दूर चाँद की आंख-मिचौली।
इधर सघन था मन भीतर प्रेमांकुर का पुट।
बहुत सहेजा मगर गलन से तन-मन कँपा।
बहार से थी ठण्ड ,अगन मन भीतर अग्नि।
कैसे उसे बुझाये -इसी धुन में थी पगली।




(शेष कल........)
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, December 21, 2016

तुम सहारा बनो , मैं सहारा बनूँ

तुम सहारा बनो,मैं सहारा बनूँ ,
ज़िन्दगी के डगर साथ चलते रहें। 
तुम न अपना कहो ,हम न अपना कहें ,
ज़िन्दगी के सफर साथ चलते रहे। 
तुम पे बीती जो बीती ,वो तुम जानती ,
मैं न पूछूँगा ,न तुम बताना मुझे। 
पूछने-पाछने में बिगड़ते हैं दिन ,
सच डगर है ,इसी में हम ढलते रहें। 
कोई बातें अगर दिल में हो जो सनम ,
जिससे आगत सुनहरा बने तुम कहो। 
हम भी वो भी कहेंगे ,और तुम भी कहो ,
ज़िन्दगी का सफर कुछ सुहाना बने। 
तुम सहारा बनो,मैं सहारा बनूँ ,
ज़िन्दगी के डगर साथ चलते रहें। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Tuesday, December 20, 2016

जब-जब याद तुम्हारी आती-2

जब-जब याद तुम्हारी आती ,
तब-तब कविता लिखता हूँ।  

वर्णन करना बहुत-बहुत है ,
पर जो यादें आती हैं। 
उन्हीं बात को बिम्ब बना कर ,
हँसता 'औ' मुस्काता हूँ। 

कविता तो बोझिलता हरती ,
मन को तरंगित कर जाती। 
तन के सारे पोर-पोर में ,
रस सुखद ही भर जाती। 

थका-थका तन-मन जब रहता ,
तब तुम थोड़ा मुस्काती। 
आती हो यादों की बेल बन ,
मन को हर्षित कर जाती। 

वही तुम्हारा रूप याद है ,
वही तुम्हारी बातें भी। 
वही तुम्हारी साँस याद है ,
वहीं तुम्हरी रातें भी। 

याद ,सभी कुछ याद-वाद है ,
पर तुमसे न कोई विवाद ?
करके भी कर लूँगा क्या मैं ?
बस केवल तनहा संवाद। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Monday, December 19, 2016

जब-जब याद तुम्हारी आती -1

जब-जब याद तुम्हारी आती ,
तब-तब कविता लिखता हूँ। 
साँझ , सवेरे , रात , दुपहरी ,
तुमको याद मैं करता हूँ। 

आसमान में जब-जब बादल ,
उमड़-घुमड़ के छाते हैं। 
यादों का मंडल बन जाता ,
यादों में खो जाता हूँ। 

तनहा-तनहा विरला सा मैं ,
जीवन का सुख दुःख सहता। 
साथ अगर तुम जो होती तो , 
बात और कुछ हो जाती। 

पर हूँ विवश ,लाचार प्रकृति से ,
कुछ भी नहीं कह सकता हूँ। 
प्रकृति हमारी मनभावन है,
प्रकृतिमयी मैं रहता हूँ। 

सांसों में बसती बस तुम हो ,
और अचेतन मन में भी। 
चेतनता में रमी हुई हो ,
अंग-अंग 'औ' जीवन में। 




(शेष कल...)
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -






Sunday, December 18, 2016

पूरा जीवन है मधुशाला-2

पूरा जीवन है मधुशाला।
पी लो तुम प्यालों पर प्याला।

ऊपर गगन मही है नीचे ,
इसका कोई भान नहीं है।
केवल धुन में झूम रहे हैं ,
पीने वाले ,पीने वाला।

राग द्वेष से मुक्त रहे हैं ,
नहीं बैर से कोई नाता।
सबको बुला-बुला कर देते,
आओ पी लो ,छक मतवाला।

पंथ एक के पथिक बने सब ,
झूम रहे ,पग-पग वो धरते।
घुमा फिरा कर बात न करते ,
कहते चलो-चलो मधुशाला।

राजा-रंक का भेद नहीं है ,
यहां सभी मधुप्रेमी धुन में।
कहते आओ पैग लगा लो ,
जीवन तो मधु है ,मधुशाला।

                                                 पूरा जीवन है मधुशाला।
                                                 पी लो तुम प्यालों पर प्याला।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


Saturday, December 17, 2016

पूरा जीवन है मधुशाला-1

पूरा जीवन है मधुशाला।
पी लो तुम प्यालों पर प्याला।
मंदिर-मस्जिद बैर नहीं है,
ना ही यहाँ पर कोई बवाला।

दुःख का कोई भान नहीं है ,
सुख में झूमे सब मतवाला।

रूप सुंदरी की आशक्ती  ,
नहीं यहाँ है ,केवल प्याला।
हाला जीवन ,प्याला जीवन ,
झूम रहा हर पीने वाला।
                                          पूरा जीवन है मधुशाला।

भाई-बहन पत्नी है घर में ,
नन्हा-मुन्ना भटके डग में।
'पापा को क्या पड़ी हुई है?'
रोज बने लगते मतवाला।
                                       पूरा जीवन है मधुशाला।...........




(शेष कल )

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Friday, December 16, 2016

जीवन के सागर में, गागर है प्रेम का।

जीवन के सागर में, गागर है प्रेम का।
बून्द-बून्द साँसों से, जीवन तो चल रहा।
जीवन है रागिनी, मीतों के प्रेम का।
छलका तो जानलो, प्रेम की उमंग है।
जीवन तरंग है, आंसू है, खुशियाँ है।
जीवन की धारा  में, संग, साथी बनतें है।
जीवन पतवार का, प्यार-वार जीवन में।
होता संजोग से, जीवन की बात भी।
बनता है योग से, जीवन की रसना है।
रस ही आनंद है, इसमें जो डूब गया।
वही बना छंद है, छन्दों की गूँज में।
रास, बिंब, अलंकार, यहाँ पूजे जाते है।
ऐसा ही जीवन है, चलता है, चलेगा।
साथी संघाती का, जाना भी खलेगा।
खलना "औ" छलना, तो जीवन की रश्म है।
कसमे व वादे भी, जीवन की भस्म है।
इसको मल-मल के, तन मन में डाल लो।
खाल-वाल छोड़ छाड़, सत्य को बाँध लो।
वही सुख पायेगा, जीवन के जोग का।
पाँव-पाँव धरती पे, रखता चला जाएगा।
                                                          - उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Thursday, December 15, 2016

मंथन

मंथन करके अमृत धारा,
निकल रहा अंतर से। 
उसे बढाओ पालो ,पोसो ,
उससे है सब विकसित। 

बीज पड़ा तब अंकुर फूटा ,
गरल-तरल से ऊपर। 
बूँद-बूँद से रूप बना तब ,
एक पदार्थ सा अविरल। 

तरल-गरल जो भी तुम मानो ,
तत्व एक ही होता। 
स्रोता बहता हुआ दीखता ,
जड़ पदार्थ सा जैसा। 

पर जड़ में जो बुद-बुद होता,
वही अंश जीवन का। 
पक-पक करके भीतर-भीतर ,
पुलक शरीर सा बनता। 

प्राण तत्व कुल भूषण सा ,
तन ढांचा वह संवरता। 
लुढ़क-पुढ़क कर तब ,
जीवन सा अंकुर बेल निकलता। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, December 14, 2016

बात पते की कहना चाहूँ-2

बात पते की कहना चाहूँ ,
मगर सुनेगा कौन यहाँ ?

ऐसे में रणबांकुर वह तो ,
क्या-क्या खेल रचाएंगे।
लोगों के मन के भीतर का ,
भाव कैसे जगवाएंगे।
कहने को तो जग अच्छा है ,
जग सच्चा यह बात सही।
मगर एक गन्दी ही मछली ,
जल को विषाक्त कर जाती।
ऐसा में वो क्या कर लेंगे ,
काम बड़ा भरी भरकम ?
कहाँ-कहाँ की बात बताऊँ ,
सब तो अपने धुन में हैं।
जनता पर थोपा है निर्णय ,
पार्टी वालों को बक्शा।
बीस हजार तक माफ़ चन्दा को ,
कैसे वो बतलायेंगे ?
जनता तो गूंगी बाहरी है,
उसको वह बहलायेंगे।
कहाँ-कहाँ की बात बताऊँ ,
सब कुछ तो है छूमंतर ?



उमेश चंद्र श्रीवास्तव - 

Tuesday, December 13, 2016

बात पते की कहना चाहूँ-1

बात पते की कहना चाहूँ ,
मगर सुनेगा कौन यहाँ ?
सबको पैसा-पैसा प्यारा ,
कौन गुनेगा बात यहाँ। 
सुबह शाम 'औ' रात दुपहरी ,
पैसों की तो माया है। 
भला बताओ ऐसे जग में ,
कैशलेस की क्या छाया ?
क्या होगा, कैसे होगा ?
यह तो छूमन्तर ही जाने। 
बड़े-बड़े सब बोल रहे हैं ,
व्यवस्था की कमी बहुत। 
ऐसे में कैसे होगा ,
कैशलेस का मायाजाल। 
इधर विशेषज्ञ बहुत कहेंगे ,
उधर कर्मचारी की कमी। 
ऐसे में तो समझ परे है ,
बात कहाँ से शुरू करूँ। 
कल्पलोक में जीवन जीना ,
भाता सबको मगर सही। 
जीवन की व्यावहारिक बातें ,
आके मिलती जमीं -जमीं। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव - 








 

Monday, December 12, 2016

रणबांकुरों कहानी आयी-2

रणबांकुरों कहानी आयी,जरा विचारो मन भीतर। भाव जगा कर बोल रहे वो,छूमन्तर कुछ दिन में है।

अरे बताओ वीर बांकुरों ,ऐसा भी क्या होता है?
अपना पैसा जो कुछ संचय ,कर हम बैंकों में है डाले ।
उसे निकलने के खातिर ही,हम पब्लिक लाइन में पीटते ।
कहाँ गयी वह बोली भाषा ,कहाँ गया वह प्रवाहित रक्त।
कब तक बाँकुर तुगलक बातें ,सुन कर हम सब मौन रहें ? क्यों अपना अधिकार गवांकर,मौन धरे चुप बैठे हो ?
लोकतंत्र की मर्यादा है बातें जन-मन रख सकते ।
वरना वह तो मारा खपा कर ,रेटिंग में बढ़ जायेंगे।
अपनी मौलिक चिंतन धारा ,थोप वहां जो बैठे हैं।
अपनी राजनीती की गोटी ,सेक कुर्सी में ऐठें हैं।
हमसे कहते धैर्य धरो तुम ,अपना संसद मौन रहे।
उनके साथी जगह-जगह पर ,अपनी वाणी बोल रहे।
ऐसा भी कहीं होता बाँकुर ,वो बोले हम मौन रहें ?



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


Sunday, December 11, 2016

रणबांकुरों कहानी आयी-1

रणबांकुरों कहानी आयी ,
जरा विचारो मन भीतर।
भाव जगा कर बोल रहे वो,
छूमन्तर कुछ दिन में है।
बाँकुर कब तक भूल-भुलैया में ,
भरमोगे ,भरमाते हैं।
पतानहीं वह कौन शास्त्री ,
अर्थ की गणना कर रखा।
जाने-माने तो कहते हैं ,
उसे सुना 'औ' पढ़ देखा।
अब बांकुरों तुम ही समझो ,
वो करना क्या चाह रहे ?
भरमाने 'औ' भ्रम में रहना ,
बाँकुर अब तो ठीक नही।
लेकिन क्या तुम कर पाओगे ,
बहुमत में वो बन बैठे।
इसीलिए तो उनने बाँकुर ,
सबका केन्द्रीकरण किया।
न वित्त ,न आरबीआई ,
उनने खुद अधिकार लिया।
अब तो बात संसद से हट कर ,
पब्लिक से वे करते हैं।
कितने लोग चले गए हैं ,
लाइन में लग कर देखा तुमने।
उनके ऊपर श्रद्धा से उनने ,
न कोई न बात कही।
हमें बताते हैं सैनिक वह ,
पर कोई सम्मान नहीं।
कहते हैं छूमंतर होगा ,
पचास दिन इन्तजार करो।
फिर घर बैठे पहले जैसा ,
मुस्काओ 'औ' मन धरो।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -





Saturday, December 10, 2016

हम तो मौन साध कर बैठे-2

हम तो मौन साध कर बैठे ,
तुम बोलो मंचों पे खड़े। 


तुम तो बने खिलाडी अव्वल ,
झांक झरोखा ,भीतर-भीतर। 
जनता को ईमान बता कर ,
खुद स्वयंभू बन बैठे। 
बोलो तुमको महाभारत की ,
बात पुरानी मालूम होगी। 
गीता के उपदेशक कृष्णा ,
बहुत दिया उपदेश मगर। 
धर्म कर्म की बात बताओ ,
अब भी अमल कहाँ करते हैं ?
वैसे लगती नीति तुम्हारी ,
लोगों को सच ही बतलाओ। 
मिथ्या का आडम्बर रचकर,
मिथक तोडना चाह रहे हो। 
संचय की है मूल संस्कृति ,
 उसको ही बिगड़ रहे हो। 
कैसे होगा, कितना होगा ,
सबको ही घूमा डाला। 
अब तो बतलाना ही होगा ,
प्लानिंग क्या-क्या योजन है ?


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -









Friday, December 9, 2016

हम तो मौन साध कर बैठे-1

हम तो मौन साध कर बैठे,
तुम बोलो मंचों पे खड़े। 
हम तो अभी नहीं बोलेंगे ,
तुम बोलो बस अड़े,पड़े। 
 हम तो तुम्हे दिखा ही देंगे ,
आओगे जब मैदानों में। 
तब पूछेंगे वोट कहाँ दे ,
तब तुम खुद ही घिघियाओगे। 
हमे लगा लाइन में बंधू ,
तुम बैठे बस बोल रहे। 
कहाँ-कहाँ की बात बताऊँ ,
तुम तो ऐठे ,बैठे वहां। 
हमको 'सुध' की याद दिलाकर ,
खेल खेलते नीति का। 
हमे समझ के गूंगा-बहरा ,
तुम तो बड़े सचेतक हो। 
कहाँ गया वह राग तुम्हारा ,
कहाँ गयी वह हेकड़पंथी। 
समय बचा है थोड़ा दिन अब ,
छूमन्तर दिखलाओ तुम। 


  

उमेश चंद्र श्रीवास्तव-

Thursday, December 8, 2016

भारत के मुखबोलों तुमने

भारत के मुखबोलों तुमने,
सारी हकीकत कह डाली।
वतन हमारा ,सुन्दर मुखड़ा ,
कथा-कहानी है पाली।
रोज सवेरे उठ कर देखो ,
सुन्दर भाव ही आते हैं।
ह्रदय पटल के अंतर मन में ,
परत सभी खुल जातें हैं।
कहाँ-कहाँ अच्छा होता है ,
कहाँ घिरी है दुःख रजनी ,
कहाँ अबोध दुलार जाता ,
कहा दुहिता है संम्भली।
सब कुछ सुबह बता जाते हैं ,
अंतर मन में देखो तो।
बड़े सलोने सहज ढंग से ,
धीर धरे तुम सोचो तो।
वह देखो अम्बर पे लालिमा ,
छिटक रही है भोरों की।
इधर धरा पर हरी घास है ,
डोलो रही मुखबोलों की।
उधर दौड़ता बच्चा देखो ,
किलकारी की गूँज लिए।
इधर तोतली बोली कह कर ,
मात-पिता की गोद हिये।
उधर गगन में पंछी कलरव,
घूम-घूम के झूम रहे।
इधर धरा पर नदियों का जल ,
मनभावन हिलोर लिए।
उधर दूर पर शिखर बिंदु तल ,
बैठा योगी जप तल्लीन।
इधर प्रिया की अनुगूंजों से ,
प्रियतम का दिल जाये झूम।
इधर पिता भी व्यग्र हो उठे ,
माता कहती-बड़ी हुई।
कुछ तो देखो दौड़ भाग कर ,
पीले करने है अब हाथ।
मौन प्रतिउत्तर पिता कंठ है ,
भावों में उत्साह की गूँज।
धीरे-धीरे पवन बहे है ,
मन की गति आनंदित सूंघ।
झूम-झूम के नाच रहा मन,
अंतर-ही-अंतर में घूम।
कहाँ रहा अब कोई अचरज ,
सभी यथार्थमयी बातें।
मन को गर सब  काबू रखें ,
बात बने, पल में ही हुजूर।
कहाँ डोलती उड़न तश्तरी,
मन को बस काबू कर लो।
सब कुछ मिलेगा इस धरती पर ,
मन तो बड़ा ही सच्चा है।
कच्चा इसको मत होने दो ,
मन तो एकदम जच्चा है।
प्रसव वेदना का वह क्षण बिहवल ,
बाकी तो खुशिया ही हैं।
इसी तरह से मन अवलोकन ,
मन तो एकदम अच्छा है।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव-    










Wednesday, December 7, 2016

सपने

सपने हकीकत हो सकते ,
गर आसमान से नीचे ,
धरा पर उतरने की ,
कोशिश हो। 
सपने देखना ,
अच्छा गुण है ,
अगर उसमे ,
यथार्थ का दिया जाये पुट। 
सपने सदैव अपने होते ,
गर उसे हकीकत का ,
जमा पहनाया जाये। 
सपने सलोने होते ,
तो उसे सहेजना जरुरी ,
क्योंकि ,
सुंदरता का निखार ,
संजोने में है। 
संजोना ही ,
जीवन की मूल निधि है। 
उसे नियत में ,
शामिल कर ही ,
आगे बढ़ा जा सकता है। 
वरना सब बेकार। 
साकार से परे ,
हो है जाता। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 







Tuesday, December 6, 2016

कुछ तो खास है

कुछ तो खास है ,
जमाना जो बना बैठा। 
कुछ तो ठाठ है ,
लाइन में भी-बोल रहे जय। 
शायद फकीरी का आलम ,
रहा है,कि लोग-
बोलते हैं ,सराहते है। 
लेकिन प्रश्न भी करते हैं ?
नाराजगी आखिर ,
अपने से ही होती है। 
नाराज होना ,
आत्मीयता का है प्रतीक। 
दुत्कारना ,उलाहना देना ,
'औ' खिलाफ बोलना ,
सब तो है,
आत्मीयता का प्रतीक। 
फिर गुरेज किस बात का। 
सामूहिक यज्ञ में ,
जो धुआं निकलता है। 
उसे कुछ प्रसाद मानते। 
कुछ तो -दूर हट जाते ,
पर बंद ओठ से -
भीतर-भीतर सराहते ,
प्रफुल्लित होते ,
कहते-कुछ तो ,
हुए विकार दूर। 
चाहे धुंए से -
आँखों में -
कुछ धुन्धलाता भरी छाया हो,
पर तासीर तो -है दमदार। 
संस्कार में कुछ ,
नए संयोजन के लिए ,
स्फूर्ति तो आई। 
बहानों से निजात तो मिला। 
 आशा का कुछ संचार तो हुआ। 
वरना हम सब मौन ,
चुपचाप उनके कारनामे ,
देखते ,सुनते 'औ' -
निठल्ले पालतू ,
 जानवर की तरह ,
मालिक के प्रति समर्पित हो ,
उसी की सुरक्षा में ,
रहते तल्लीन। 
कुछ तो बात है ,
जिसे बोलने में -हम ,
हिचकिचा रहे हैं। 
समझने में शरमा रहे हैं। 
'औ' कहने में सकुचा रहे हैं। 
हुआ तो फैसला ,
देश हित में ही तो है। 
अब देखना है -
हमारे समवेत-बाजुओं में ,
कितना दम ख़म है। 
इसे स्वीकारने या ,
इसे नकारने में ,
बहरहाल काम तो ठीक है। 
दबी जुबान से ही सही ,
अंतरमन कह तो रहा है। 
'औ' देखिये विश्व के ,
पटल पट पर ,
मुखरित तो हो रहा है ,
भारत का नाम ,
भारत की कीर्ति ,
'औ' भारत का सम्मान। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव-




Monday, December 5, 2016

पांव की गति कम हो जाती है

पांव की गति कम हो जाती है ,
उम्र के ढलान का अहसास दिलाती।
जो पग तीव्र गति से ,
कभी चलायमान थे।
आज कुछ ठगे ,ठहरे से महसूस होते।
निगाहों में पैना पन ,
अनुभव का अटूट अहसास ,
धूप से नही ,
अनुभवी दृष्टि से पके -
माथे पर गिरे हुए बाल।
सब कुछ है -इस देहं धारी ,
माटी की बुत में।
बस है नहीं-तो ,
पगों की वह तीव्रगामी चाप।
बस है नही ,वह-
सांसों का समतल प्रवाह।
टूट जाती हैं सांसें ,
बल पड़ने पर -बिखर जाता है ,
तन-मन का संतुलन।
शायद इसी से-नई पौध ,
 जिसके तले -बड़ी ,बढ़ी ,
आज छनछना जाती है,
उस थके हुए,
पांव की गति ,देखकर।
भुनभुना जाती है ,
उस ढलान की बोली सुनकर ,
तुनुक जाते हैं लोग ,
तीव्र गति से आगे बढ़ ,
यह कहते हैं कि -
बूढ़े पांव को समझना चाहिए ,
कि वह अपने ,
गति वाले के साथ चले।
बस यही सवाल है ,
अनुभवों को नही ,
बाटना चाहती ,
यह नयी पौध।
अपने में मस्त ,
अपनी बात पर ,
दौड़ भाग कर रही ,
यह पौध -कहाँ जाएगी !
कम गति वाले पांव की ,
यही चिंता है ,
जो सवालों के रूप में ,
समाज को झकझोर रही है।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव-

Sunday, December 4, 2016

बड़े मजबूर हम तो हैं-2

बड़े मजबूर हम तो हैं ,यही कहते समझ कर के। 
हुआ जो फैसला ,अच्छा ,बहुत ही अच्छा लगता है। 

है यह तो बात गर पक्की ,जरा फिर से बता देना। 
कसम खा के मुकर जाना ,शरीफों की तो आदत है। 
इसी बस खेल में दुनिया जुटी ,दुनिया बेपानी है। 
बताओ सत्य यह बातें ,तुम्हे क़ुरबानी क्यों चाहिए? 
भला तो कर भी कैसे सकते हो ,लोगों पे मेहरबानी। 
पुरानी बात है तुम तो, पुराने लोग जो ठहरे। 
जुगत से बात अपनी रखने में, तुम तो ,तो माहिर हो। 
कसम से सच करो, किस्सा कहाँ ,क्या बेजुबानी है ?
बहस खमोश रह कर सुन भी लेते हो सदन बैठे। 
सभा में ठोक डंका , मुखड़ों पे अजीब रवानी है।  
तेरा कुनबा ,तेरा इतिहास ,जनता को जुबानी है। 
बड़े ही प्रेम से तुम तो सभी से ,यह कहाते हो। 
धरम के तुम पुरोधा हो ,धरम से बात करते हो। 
जुबानी सब तुम्हारा तो ,जुबानी पे ही चलता है। 
कहो तुम कुछ ,सिपाही कुछ करे ,आदत पुरानी है। 
ये जन को क्या कहे ,सब कुछ तुम्हारी मेहरबानी है ?

उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
 






Saturday, December 3, 2016

बड़े मजबूर हम तो है

बड़े मजबूर हम तो है, यही कहते समझ कर के।
हुआ जो फैसला- अच्छा, बहुत ही अच्छा लगता है।
चलन से पाँच सौ का नोट "औ" हजार के बंद हुए।
कथन उनका यही तो है, इसी से कला धन बंद हो।
इसी बस एक फैसल से, वे भ्रष्टाचार मिटायेंगे।
हुजूरेआला- मेरी आपसे इतनी गुज़ारिश है।
 कसम से सच ही तुम बोलो, वो शादी कैसे होती है।
गरीब दस हजार को तरसे, अमीर करोड़ो खर्चा कर।
पता नही पैसा कैसे बैंक, उनको दे- भुना देता।
है कौड़ी दूर की तो है, मगर यह बात बेमानी।
सयानी दुनिया लगती है, सयाने नेता है सारे।
वो कहते देश बदलेगा, ज़रा तकलीफ तो कर लो।
कसम से वो बचाव भी- बड़ी तरकीब से करते।
पता नही कुर्सी खातिर तो, नही हिकमत तो अच्छी है।
सभी ही जानतें है, बात- यह एकदम से पक्की है।
पुराना रूतबा जाएगा, सभी सामान्य हो जाए।
मगर सत्ता बताये- तब कहा अम्बानी जायेंगे।
कहा पर टाटा बैठेंगे, कहा बिड़ला पधारेंगे। (आगे कल.... )
                                                                                       -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Friday, December 2, 2016

विम्ब

स्त्री के उस बिम्ब को-
उभारो-जहाँ बसता है,
मानव मन-जो ,
तरह-तरह के लुभावन से ,
विवश कर देता है स्त्री को। 
अपनी अस्मिता को ,
न्योछावर कर ,
ठग जाने के बाद ,
उसे अहसास होता है ,
कि वह तो बेचारी , 
बेचारी ही रही। 
आधुनिकता की चकाचौंध में ,
तरह-तरह के मानदंडों से ,
उसे ठग जा रहा ,
खामोश-
समाज रुपी चादर को ओढ़े ,
आखिर कब तक,
 उसे दौड़ाएगा ,
यह पूरी दुनिया का ,
आधा हिस्सेदार। 
कब तक !कब तक !! कब तक !!!





Thursday, December 1, 2016

विमर्श

स्त्री विमर्श के नाम ,
परोसा जा रहा दैहिक दर्शन। 
बहुत हो चुका ,
अब तो करो कुछ नया प्रदर्शन। 
लोक,समाज ,द्वंद , फंद का ,
कुचक्र चला जो-
उस पार का बारीक , 
सार्थक हो कुछ लेखन। 
जैसे आज विकास के दौर में ,
अब भी फलता-
अंधी श्रद्धा का दर्शन। 
अनपढ़ ,निपट गंवार ,
ठेठ अंगूठा वाले ,
बने अजब के बाबा। 
करते बल भर शोषण। 
'औ' हम स्वार्थ पूर्ती में ,
भटक-भटक के ,
चक्कर में-उनके आते हैं,
प्रतिदिन ,प्रतिक्षण। 
ऐसे बाबा के खिलाफ ,
खूब हो प्रदर्शन। 
उनको पकड़ कराओ ,
जेल और डंडा दर्शन। 
सबसे  ज्यादा शोषित -
यहाँ हो रही है ,
आधी दुनिया की मालकिन। 
जननी ,बेटी 'औ ' कुलवधू। 
जननी है अटूट ,
श्रद्धा से ओत-प्रोत। 
उसका करो सम्मान ,
करो कुछ नया दिग्दर्शन। 
उमेश चंद्र श्रीवास्तव-




 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...