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Sunday, April 30, 2017

मैं हूँ पाखी ,समझ रहे हो क्या

poem by Umesh chandra srivastava

मैं हूँ पाखी ,समझ रहे हो क्या ,
तुम तो भंवर-पतिंगा हो।
मत मँडराओ पास हमारे ,
जल-बर कर रह जाओगे।
मैं तो दीप हूँ ,
मेरे लौ से दूर रहो।
तुम  तो ठहरे दीवाने ,
डोल-डोल बस घूर रहे।
काम-वाम है कोई नहीं क्या ?
हर दम आके डट  जाते हो।
राहो में मेरे झुरमुट सा ,
आकर बस तुम , बस ,बस जाते हो।
मैं क्या कोई छुई-मुई हूँ ,
जो तेरी आहट से सूख जाऊं।
अपनी दृष्टि क्या रखते ?
देख-देख क्या पा जाओगे !
भंवर पतिंगे सा जीवन ,
क्यों अपनाना चाहते हो।
मन में कोई और भाव नहीं है क्या ?
एक भाव से हरदम चुस्त।
फौलादी हो ,कुछ करो ,
देश हित में कुछ बरो।
दूजी दुनिया की यह रंगत ,
स्वयं पास आ जायेगी।
फिर तुम देखो-जी भर के ,
दृष्टि पसारो-परस करो।
नेक दृष्टि रख आगे बढ़ो तुम ,
तुम पर यही भाव मेरा।
छोड़ो पीछा ,जाओ हट कर ,
सही मार्ग कुछ अपनाओ।
अपना भी हित कुछ कर लो तुम ,
और देश-समाज का भी।
 वरना तुम जाओगे वहां ,
'पास्को' लगेगा ऊपर से ,
रगड़- रगड़ खप जाओगे।
         मैं हूँ पाखी ,समझ रहे हो क्या।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, April 29, 2017

राम की शक्ति माता तुम्हीं तो बनी

poem by Umesh chandra srivastava

राम की शक्ति माता तुम्हीं तो बनी ,
राम असहज हुए तो पुकारा तुम्हें। 

राक्षसों की तो माया बिकट थी बिकट ,
तेरे चरणों से उनका ही मर्दन हुआ। 

तेरे नामों का सुमिरन ,मनन जो करे ,
फिर वह जग में रहे मुक्त प्राणी तरह। 

कोई झंझट व संकट में वो न पड़े ,
माँ तू ही है सुखों की अमर रागनी। 

तेरा दर्शन 'औ' पर्शन सभी चाहते ,
माँ जगत की तू ही है तो शक्ति घनी। 

तेरे आँचल में जन-मन सुखी से रहें ,
राम की तू आराधन तुम्हें पूजते। 



 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Friday, April 28, 2017

सोचता हूँ

poem by Umesh chandra srivastava

सोचता हूँ ,सबको ले के चलूँ ,
घर ,परिवार ,साथी-संघाती सबको।
पर  फिर  ठिठक जाता हूँ ,
सबकी-अपनी सोच ,
अपना दायरा ,
अपना अनुभव ,
बातें तो वह -उसी हिसाब से करेंगे ,
मेरे मन को भाये ,
न भाये -ऐसे में ,
मैं सोचता हूँ ,
अपने विचार को मानूँ।
लेकिन लहू का संस्कार ,
क्या इसकी इज़ाज़त देगा ?
देगा -सोचता हूँ ,
ज़रूर देगा ,
मगर थोड़ा विद्रोही होने पर।
आखिर यही तो ,
किया भारतेन्दु जी ने।
भाई ने हिस्सा बटा लिया।
सोचिये -उनसा ,
उनसा संकल्पित होइए ,
तब बनेगी बात सब।
तब रच पाएंगे ,
साहित्य का नया वितान।
तब आप भी ललकारें !
शपथ लें ,मुकरें नहीं ,
अडिग रहें -साहसी योद्धा की तरह।
क्योंकि -साहसी योद्धा ही ,
बनाता है ,
संवारता है ,
प्रेरणा देता है।
संकल्प कीजिये ,
तो आ जाइये ,
संकल्प लें, और ,
चल पड़ें ,
उसी राह पर ,
जहां अपनी ज़मीन हो ,
अपना आसमान हो ,
और सिर्फ ,
अपने सपनों की हक़ीक़त हो।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, April 27, 2017

तुमसे नयन लड़ी जो प्रियतम

poem by Umesh chandra srivastava 

तुमसे नयन लड़ी जो प्रियतम ,
नयनों में मधुमास हुआ। 

इधर-उधर अब मत भटकाओ ,
अबतो कुछ अहसास हुआ। 

नहीं पता था प्रियतम तेरे ,
नयनों में इतना रास है। 

बाग़ -बाग़  सब उपवन हो गए ,
उहा-पोह में साँस हुआ। 

कहो बताओ किधर चले हम ,
पंथ यहाँ से जाते अनेक। 

किस पथ पर हम चलें बताओ ,
मन एकदम संत्रास हुआ। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, April 25, 2017

बड़ी खूबसूरत हैं आँखें तुम्हारी

poem by Umesh chandra srivastava

बड़ी खूबसूरत हैं आँखें तुम्हारी ,
जहां भर की दिखती है इशरत इसी में। 
निगाहों का पैना वह पन है सुहाना ,
गिराकर ,उठाकर हो करती दीवाना। 
ज़रा होश में तो  रहो मेरी जाना ,
नहीं हमको करना मदहोशी ज़माना। 
बड़े तो सितमगर यहाँ लोग बैठे ,
नहीं कुछ मिलेगा तो तोहमत लगाना। 
मुझे फ़िक्र तेरी तुझे खुद की न हो ,
मगर मैंने जाना यह ज़ालिम ज़माना। 
कहाँ यह बना दे , कहाँ यह दिखा दे ,
तुम्हें भी तो रुसवा ये शूली चढ़ा दे। 
नहीं इसको भाता युगल प्रेम कोई ,
कहाँ इसको फुर्सत ये समझे तुम्हें भी। 
इसे बस ये आता नहीं है रहम भी ,
यह फरमान देकर करेगा बेगाना। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Monday, April 24, 2017

हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,

poem by Umesh chandra srivastava

हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,
विचरण करते रहते।
क्या-क्या देखा नहीं यहां पर ,
विधि का  लेखा सब  कुछ है।

दूर गगन में अंशुमाली ,
धरती पर उजियारी है।
हवा बहे सुन्दर से सुन्दर ,
मौसम में गुलज़ारी है।

अटखेली में बाल-बृंद सब ,
तरुण-अरुण सा डोल रहे।
तरुणाई तो भ्रम ही नहीं है ,
इसमें जो कुछ जोड़ सको।

समझो जीवन का दर्पण यह ,
संकल्पित हो आगे बढ़ो।
गर तुम चुके गरमाई में ,
नयनों के दीदारों में।
सब कुछ चौपट हो जाएगा ,
अरुणित जीवन तब क्या हो ?

जो तुम शब्द चितरक बनके ,
शब्दों के अर्थों में घुल।
मर्मों के सब अर्थ समझ के ,
वैचरिक दृष्टि धरके ,
आओगे तो लोग यहाँ पे ,
चरण बृंद सब चूमेंगे।
          हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,
          विचरण करते रहते।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Sunday, April 23, 2017

तुम पर आस लगाए हैं - 2

poem by Umesh chandra srivastava

अब तो सुनवाई है होनी ,
क्यों भृकुटी है तनी हुई।


न्याय व्यवस्था को क्या कहना ,
न्याय व्यवस्था न्यायमयी।
यही देखना है बस आगे ,
क्या निर्णय ,क्या बात हुई।
वैसे तो यह मैटर ठहरा ,
इसपर लिखना दूभर है।
पर सत्य बताना वाजिब ,
सत्य आवरण में खिलता।
सत्यों का अनमोल जगत यह ,
यहां सत्य है सत्यासत्य।
मगर रौशनी में जो दिखता ,
उसमें कुछ परछाईं है।
परछन का यह दौर पुराना ,
परछन जग की थाती है।
इसीलिए इस पर  कुछ कहना ,
परछन का प्रतिघाती है।
लो अब समझो तुम तो ठहरे ,
भावों के खेलन-मेलन।
तुमसे कुछ भी कहना सुनना ,
भावों का भावातुर है।
कुशल चितेरक तुम भावों के ,
भाव-भावना से खेलो।
हम सब सारा सब कुछ सह के ,
तुम पर आस लगाए हैं।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, April 22, 2017

तुम पर आस लगाए हैं -1

poem by Umesh chandra srivastava 

अब तो सुनवाई है होनी ,
क्यों भृकुटी है तनी हुई। 
जीवन के उस छोर पहर की,
कथा-कहानी खुलना है। 

वह तो एकदम मुखर हो गयीं ,
एकदम से ललकार कहा !
क्यों चेहरे पर शिकन आपके ,
क्या कुछ-कुछ असंगत था !

रमे हुए जो तन-मन भीतर ,
उनको बाहर लाना है। 
जन्मभूमि का राग-वाग सब ,
इस धरती पे बनाना है। 

तब तो थी मुखरित सी वाणी ,
अब खामोशी ओढ़ ,पड़े। 
कानूनों के जिरह चक्र में ,
मंसूबे अब बना रहे। 

देखो अब क्या-क्या कहते हो ,
सत्य एक था -डट जाओ। 
अब पैतर  का खेल न करना ,
कला तुम्हारी यह अनमोल। 

बड़े दुखी अयोध्या वासी ,
जब अतीत में जाते हैं। 
वह था तो कोहराम भयंकर ,
मार्ग-मार्ग पर बंदिश थी। 

नारा गूँज रहा नभ मंडल ,
जेलों में आस्था सैलाब। 
बात पुरानी-विध्वंसन था ,
जायज बात नहीं थी वह। 

सही बताओ सत्य ही कहना !
वहां तो दर्पण होता है !
जो भी दिखाओगे दर्पण में ,
वही फैसला आएगा।  


शेष कल। ....... 
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, April 21, 2017

आज फिर शाम ढलने को लो गयी

poem by Umesh chandra srivastava

आज फिर शाम ढलने को लो गयी ,
मन का यूंहीं मचलना गज़ब ढा गया। 
मुखड़े पे कुछ शिकन ,कुछ उदासी वह पन ,
वो तो आये नहीं बस गज़ब ढा गया। 
आ के कहती सहेली ज़रा सब्र से ,
उसका यह ही तो कहना गज़ब ढा गया। 
बात करते वह रोज़ - आज ही आएंगे ,
सांझ सूखे का पड़ना गज़ब ढा गया। 
मुस्कुराती रही बाल बच्चों के संग ,
सुत का पूछा यह जाना गज़ब ढा गया। 
रोज़ कहते पिता बस अभी आ गये ,
माँ आंसूं छलकना गज़ब ढा गया। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, April 20, 2017

गर्मी की यह प्रचंड रवायत

poem by Umesh chandra srivastava


गर्मी की यह प्रचंड रवायत ,
क्या तुमको यह मालूम था।
धरती का यह दहकन होना ,
और हवा में गर्म सा झोका।
लोगों का फिर भी यह कहना,
क्या तुमको यह मालूम था।

दिन दहाड़े बरबस प्रेमी ,
युगलों का गर्मी से तपना।
और बहारें मन में उठना ,
क्या तुमको यह मालूम था।

दिवस पहर का बोझिल होना ,
लोगों का तर-तर कर बहना।
बहना का भाई से कहना ,
क्या तुमको यह मालूम था।

प्रकृति का यह रुख परिवर्तन ,
पर्वत पर बर्फों का पिघलना।
और मही का तपती 'उहं'पन ,
 क्या तुमको यह मालूम था।


 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Wednesday, April 19, 2017

प्रेम का काव्य लिखना बहुत चाहता

poem by Umesh chandra srivastava 

प्रेम का काव्य लिखना बहुत चाहता। 
प्रेम की सब कला से मैं महरूम हूँ। 
उसका मुख है कि चंदा नहीं कह सका ,
उसके अधरों का पंखुड़ नहीं सह सका। 
मुस्कुराई तो पूरा जहाँ ही हिला ,
उसको यह भी तो बातें नहीं कह सका। 
       प्रेम का काव्य लिखना बहुत चाहता। 

वह दिवस भोर है या है तेजोपहर ,
उसके रूपों की गर्मीं नहीं सह सका। 
वह मधुर रात है या कि संध्या पहर ,
उसको यह भी तो नाम नहीं दे सका। 
      प्रेम का काव्य लिखना बहुत चाहता। 

बात आयी मिलन की पिछड़ मैं गया ,
दुनियादारी की बातों से भय खा गया। 
वह तो कहती रही राज की बात है ,
पर रज़ाई उलटने से डरता रहा। 
अब कहें क्या उसे सब मेरा दोष है ,
चाहे कुछ भी कहो बल नहीं कर सका। 
      प्रेम का काव्य लिखना बहुत चाहता। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, April 18, 2017

गीत

poem by Umesh chandra srivastava

बहुत खूब मुखड़ा , सुनैयने हैं नैन  ,
हुआ मैं दीवाना ,बहुत हूँ बेचैन।
तुम चलती तो लगता जहां हिल गया ,
करें बात क्या हम ,नहीं हमको चैन।
हैं बातें बहुत सी ,यह फितरत नहीं ,
मगन हो के नाचूँ ,करूँ क्या सुनैन।
तुम कहती हो ,प्रियतम तुम्हारी हूँ फैन ,
मगर अब कहें क्या ,तुम्हें हम फुनैंन।
अगर पास आओ , तो बातें बनें ,
सुखद हो सफर ,वरना चलने दो बैन।
मगर दिल तो ऐसा-नहीं मानता ,
तुम्हारे लिए ही ,धड़कता तूनैन।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Monday, April 17, 2017

उनसे कहो कि वो तो आके बात तो करें

poem by Umesh chandra srivastava

उनसे कहो कि वो तो आके बात तो करें।
नफरत 'औ' सितम कब तलक , बेज़ार न करें।

माना हुई गलती-जो उन्हें ताना दे दिया।
पर उनने भी हमको-उलहना भी खूब दिया।

दो चार रोज़ साथ रहे , फिर पलट गए।
न जाने कौन गम है , कि वो दूर हो गए।

माना कि कुछ ठहर के-मैं बात से मुकरा।
पर वह तो मुझसे एकदम तकरार कर गए।

अब बहुत हुआ कह दो , वो अब आएं घर मेरे।
वरना मुझे क्या मैं तो दूजा बसाऊंगा।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Sunday, April 16, 2017

आज तुम्हारा रूप पवन है

poem by Umesh chandra srivastava 

आज तुम्हारा रूप पवन है ,
चेहरे पे दमकन भी है। 
जैसे उपवन में खिलवन हो ,
 मौसम में भी सावन है। 

मिलजुल कर इस अमर बेल पर ,
रचना हम तुम कुछ कर लें। 
प्रकृति का अनमोल सदन यह ,
इन सदनों में कुछ हलचल हो। 

चलो वहां सुकुमारित पल में ,
सृष्टि का निर्माण करें। 
हम तुम मिलकर इस सृष्टि का ,
थोड़ा तो विस्तार करें। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, April 15, 2017

नव नूतन यह मार्ग सुखद हो

poem by Umesh chandra srivastava

नये जोड़ों के लिए ,

नव नूतन यह मार्ग सुखद हो ,
नव नूतन व्यवहार रहे।
जीवन में आगे ही बढ़ना ,
यही भाव-विचार रहे।

जीवन की इस सुख बेला में ,
जीवन साथी मिला तुम्हें।
दोनों मिलकर-संयम धर के ,
आगे के सपने बुन लो ।

नए पंथ पर डट ,बढ़ जाओ ,
सब ही मिलेगा-गर एकाग्रित।
जीवन के इस रसिक पहर में ,
अड़चन की कोई डोर न हो।

निर्विवाद से जीवन चलता ,
यही बात मुखरित कर लो।
सब ही खिलेगा-इस पथ पर तो ,
बस एकाग्रित ,लगन धरो।
    नव नूतन यह मार्ग सुखद हो ,
    नव नूतन व्यवहार रहे।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, April 14, 2017

ज़रा खिलवन्त में आओ

poem by Umesh chnadra srivastava 

ज़रा खिलवन्त में आओ ,
ज़रा दीदार तो कर लें। 
नहीं कुछ मांगता ,
बस प्यार सा, कुछ प्यार तो करलें। 
रहेगी बात-किस्सा प्रेम का ,
समझो अमर होगा। 
वो गाते गीत गाएंगे ,
कि जैसे राम 'औ' सीता। 
नहीं हम कृष्ण ,
पर राधा का कुछ ,
अहसास तो करलें। 
बताओ राधा-कृष्णा की ,
अमर जो प्रेम की बातें। 
न कोई घात ,न प्रतिघात ,
बस उनमें प्रेम पलता है। 
वही तुमसे हमें-अपनी ,
कहानी को बनाना है। 
ये किस्सा है पुराना ,पर ,
ज़रा नज़दीक तो आना। 
वहां क्यों दूर से -
दाना पे दाना डालती क्यों हो ?
रिझाने में मज़ा ,
यह मानता ,
पर बात को समझो। 
      ज़रा खिलवन्त में आओ ,
      ज़रा दीदार तो कर लें। 






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chnadra srivastava 

Thursday, April 13, 2017

विमर्शों का दौर पुराना-2

poem by Umesh chandra srivastava

विमर्शों का दौर पुराना ,
अब आया भावों का दौर !

बिना साक्ष्य ,गूंगा बोलो -
कैसे नाम बताएगा।
वाह रे ! चिंतक !!
चिंतन धारा को ,
क्या तुमने रूप दिया ?

इस युग में निस्वार्थ की बातें ,
जैसे लगता सपना है !
सपने भी सच हो जाते हैं ,
गर वे स्वप्न सलोने हों !
वरना देखो-घूमो-फिरो  ,
कहाँ स्वप्न संभव होंगे !

वाह रे ! खूब चितेरक तुम तो ,
जन-मन के बादशाह बने।
रमे हुए जो तन-मन भीतर ,
उसका नाम जपो भाई।
बिंदु दिया है ,नया रूप है ,
गढ़-मढ़ लो आगंतुक हो।
हम सब सारे इस दुनिया में ,
केवल मात्र आगंतुक हैं !
जाना सबको-इस रण से है ,
एक न एक दिन आएगा।
मगर दृष्टि -जो देके गया है ,
वही वृष्टि ही पायेगा।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Wednesday, April 12, 2017

विमर्शों का दौर पुराना

poem by Umesh chandra srivastava 

विमर्शों का दौर पुराना ,
अब आया भावों का दौर !
भाव-प्रभाव में पड़ने वाले ,
अब तो नया विमर्श दिया। 

करो काम हनुमान तरह तुम ,
निस्वारथ हो ,मग्न रहो। 
जन-मन बीच रहो तुम जाकर ,
बिन आदेश के काम करो। 

स्वार्थमुक्त कैसे वह होंगे ! 
बोल दिया एजेंडे को ,
उसी विहाफ़-पर-डट जाओ ,
19 का कुछ ध्यान धरो।  

गौर से देखा जाये अगर यह ,
राम बना है कौन यहां !
मंदिर-मस्जिद राग अलपता ,
राम रमे हैं जन-मन में।  

कैसी दृष्टि दिया है भाई !
मान लिया-तुम हो उस्ताद !
बहुत दिनों से सोच रहा था ,
नया-नया कुछ आएगा ?

आखिर आया दौर नया यह ,
अब तो झूमों मग्न रहो। 
वह तो है अनमोल चितरक ,
योग-योग से तपा हुआ। 

योग का मतलब केवल जोड़ना ,
अब देखो क्या जोड़ा है !
भावों के बैकुंठ-कुंड में ,
बैठ दिशा जो बोया है। 

ऐसा, नहीं वह काम कर रहे ,
बिना साक्ष्य आरोप कहाँ ?
साक्ष्य रहेगा तब आरोपित ,
सजा-वजा सब पायेगा। 


शेष कल.......
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, April 11, 2017

हनुमान तुम्हारा बल तो बस

poem by Umesh chandra srivastava 

हनुमान तुम्हारा बल तो बस ,
अतुलित है बस अतुलितशाली। 
लोगों को भयमुक्त कर देते ,
बस नाम जपे जो भी भाई। 

तुम राम उपासक ऐसे हो ,
कोई भी न दूजा वह होगा। 
माँ सीता के तुम सुत ठहरे ,
जिसने तुमको अमरत्व दिया। 

तुम ज्ञान के सागर ,आगर हो ,
सब ही का तेज संवारो तुम। 
हर मन में प्रेम भाव का ही ,
दीपक तुम सदा जलाते हो। 

तुम अंजनी पुत्र ,पवन सूत हो,
वीरों में अतुलित बलशाली। 
सब नाम तुम्हारे चरणों में ,
मुझको भी तुम कुछ बल दे दो। 

जीवन भर सुमिरन तेरा ही ,
हे राम उपासक ,रुद्रावतार। 
तुममे यह सारी दुनिया है ,
तुम सदा करो कल्याण-हित। 
       तुम सदा करो कल्याण-हित। 
       तुम सदा करो कल्याण-हित। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Monday, April 10, 2017

बेटियां पढ़ , बढ़ें आगे नाम करें

poem by Umesh chandra srivastava

बेटियां पढ़ , बढ़ें आगे नाम करें ,
देश का तो सितारा बुलंदी पे हो।
आस में ही रहो ,बेटियां हैं धरम ,
इनको कर्मो से मिलता शिखर-ही-शिखर।

घर-गृहस्थी की बातें भी वो सब करें ,
मात को चाहिए बेटी पढ़ के बढ़े।
बेटी पढ़ जो रही ,हर जगह काम में ,
इस पढ़ाई से गति को मिलेगी दिशा।

सब दिशाओं में बेटी का परचम बढ़े ,
माँ-पिता की भी बांछे खिले-ही-खिले।
रोज का काम बेटी को सौपों मगर ,
ध्यान यह भी रहे बेटियां राष्ट्र की।

बेटियों से बढ़े देश का मान हो ,
बेटियों को बराबर दर्जा मिला।
बेटियां क्यों रहें बेटों से कम भी भला ,
बेटियों की कला तो है अक्षुण यहाँ।

देख लो गर अतीतों का पल वह सुखद ,
बेटी सीता ,सावित्री ,अहिल्या रही।
अपने तप से विधाता को दी बानगी ,
बेटियां तो हमारी हैं पूँजी , बढ़ें।

बेटियों से ही खिलता है प्यारा जहाँ ,
बेटी धरती रही, बेटी गंगा रही।
दोनों ने ही उचाई की मंजिल चुनी ,
देखलो-वो कहाँ आज दिखती यहाँ।

मत पड़ो तुम विमर्शों का यह दौर है ,
बेटियां बस पढ़ें और आगे बढ़ें।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Sunday, April 9, 2017

ये दर्पण रीझाता सुझाता है मुझको

poem by Umesh chandra srivastava

ये दर्पण रीझाता सुझाता है मुझको ,
बहुत दांव-पेंच सिखाता है मुझको।
मगर ये जो झुर्री नज़र आ रही है ,
उमर हो गयी है बताता है मुझको।

मगर वो सनम क्या सुहाने से दिन थे ,
लगा के जो आती थी पहलू में मेरे।
नज़ारे सभी बौने अब हो गए हैं ,
मगर अब भी सुधियों की  चादर है उड़ती।

सुबकता बुलाता नहीं तुम अब आती ,
वो दर्पण भी फोटो दिखाता ही रहता।
बहुत मान से यह बताता ही रहता ,
रहो याद करके मगर कुछ न बोलो।

ह्रदय के पटों को मलो और तौलो ,
नहीं मिल सकेगी सकीना यहाँ अब।
नगीना बनी अब तो मौसम फ़िज़ा में ,
उसे बस निहारो-तुम सपनों की चादर।

यही ज़िन्दगी है सम्भालो ज़रा तुम ,
इसी से तो बेबस वशर हो गया है।
कहें क्या किसी से नज़र हो गया है ,
बस ऐसे बिताओ जो जीवन बचा है।

लगाओ मनों को बहुत से जो मंजर ,
सुधी में रामों बस उसे याद रख्खो।
खुदा का दिया सब यहाँ पर मिला है ,
सिला है ,खिला है यहाँ बस मिला है।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, April 8, 2017

यह तो नीति

poem by Umesh chandra srivastava

यह तो नीति ,नहीं है परंपरा ,
जिसको तुम अपनाते हो।
धर्म धुरी के बन के प्रणेता ,
राजनीति में आते हो ?

कहाँ गयी वह धर्म की बातें ,
राजनीति में घातें हैं !
तुम बतलाओ धर्म धुरंधर ,
राजनीति में आते क्यों ?

प्रश्न है वाजिब पूछ रहा हूँ।
तुम तो धर्म के साधक हो।
राजनीति को वरण किया क्यों ?
तुम तो धर्म के वाहक हो !



उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, April 7, 2017

रात आयी तो तारे घने हो गए

poem by Umesh chandra srivastava 

रात आयी तो तारे घने हो गए ,
जैसे चादर पे बिंदी लगा दी गयी। 
देखो कैसी चंदनिया निखर सी गयी ,
अब नज़ारा तो कितना सुहाना लगे। 
दो पहर तो ठहर जा, यहाँ पर तो तू ,
देख मौसम ,मिज़ाज़ बदल जाएगा। 
जुस्तजू ज़िंदगी की यही तो रही ,
बात बनती यहाँ साथ जो तुम रही। 
चंद लमहों का थोड़ा मिलन ही रहा ,
पूरे जीवन की समझो ख़ुशी मिल गयी।  





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, April 6, 2017

जो रचेगा वही बचेगा

poem by Umesh chandra srivastava

भाषा के स्तर पर , सरल-सरल ,
भाव के स्तर पर मीनार ,
और बिम्ब के स्तर आकाश हूँ।
लक्ष्य साध कर बनाया है ,
रगड़-रगड़ कर-बस ,
बस उसी पथ पर चलना चाहता हूँ।
कुछ  जीवन की ,
कुछ समय की ,
कुछ प्रभाव की ,
कुछ तो कभी-कभी अभाव की,
स्थितियां- बेचैन कर जाती हैं।
सोचता हूँ- यह जीवन चक्र है,
सारी दुनियादी बातें,
सह कर भी,
उस लक्ष को पाऊंगा।
सब कुछ सह कर- उस रचाव में,
तटस्थ रहूँगा, व्यस्त रहूँगा।
क्योंकि जो रचेगा वही बचेगा।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, April 4, 2017

मैं भीड़ नही हूँ,

poem by Umesh chandra srivastava 

मैं भीड़  नही हूँ,
न भीड़ में रहना चाहता हूँ। 
और न भीड़ का हिस्सा हूँ। 
मैं जो हूँ, वह हूँ। 
अपने लिए- तुम्हारे लिए,
सबके लिए। 
भीड़ क्या है?
सिर्फ कायरता !
नेतृत्व क्या है?
केवल क्षमता। 
इसीलिए भीड़ नही,
नेतृत्व हो,
"मैं" नही "हम" हो। 






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Monday, April 3, 2017

खजुराहो में चित्र उभरते

poem by Umesh chandra srivastava

खजुराहो में चित्र उभरते ,
ग्रीक मूर्तियां ,फ्रेंच कला।
निर्वसनाएं स्थापित करतीं ,
मानव तन की उत्स कला।
कभी-कभी विभीषिका अंकित ,
कभी यौन जीवन सन्दर्भ।
सीधा शब्द प्रयोग यहां पर ,
शालीनता से हुआ परे।
क्योंकि यहाँ पे -
उन अनुभव का ,
सतही रूप उभरता है।
सम्प्रेषण का भाव-अर्थ कुछ ,
बोझिल-बोझिल लगता है।
मन पर कम ,मस्तिष्क पर ज्यादा ,
बोझ ज़रा यह देता है।
आज की जो भी विकसित अकविता ,
सैद्धान्तिक ,व्यवहारिक है।
लय में भी-गहन-गहनतर इसमें ,
कहाँ बताओ लय न है।
गौर से देखो-शब्द ब्रह्म है ,
ब्रह्म बताओ-लयमय है !






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Sunday, April 2, 2017

नाम सुमिरन करू

peom by Umesh chandra srivastava 

नाम सुमिरन करू,
या मैं वंदन करू। 
मात तुम ही तो हो,
जल, थल, अम्बर, सही। 
तू ही प्रकृति, तू ही स्वास्थ्य में,
है रमी। 
तू ही विकसित जगत की,
है अद्भुत छवि। 
तू ही ब्रह्मा, तू ही विष्णु,
तू ही महेश। 
सब में व्यापी,
तेरा मैं कर नित भजन। 
तू सजन की है सजनी,
तू ही मात है। 
तू ही सूत है बनी,
मात आज्ञा तू ही। 
तेरे दर्शन से,
अनुपान सुखद रागनी। 
तू ही अम्बा,
तू ही तो जगदम्बा मही। 
तेरा ही है जगत,
तू जगत नर्तन। 
तेरे में है बसे,
तेरा दर्शन करे। 
तू ही श्रद्धा की देवी,
तू ही आस्था। 
भर दे मन में मेरे,
वाणी की साधना। 
हम करे तेरा अर्चन,
तेरा दर्शन करे। 
तूने दृष्ठि से,
पूरी है सृष्ठि रची। 
हम करे नित भजन,
यही वंदन है माँ। 




उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
peom by Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...