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Monday, October 31, 2016

क्रंदन

मेरे क्रंदन में तु ही तू ,
निश्चल भाव की पुलकावली। 
जब भी होता -एकांतिक मैं ,
तेरी पीर उहुक भरती । 
जग में केवल एक है रिश्ता,
नर-नारी का वह केवल। 
बाकी रिश्ते-वहीँ से बनते ,
साथी बात पुरानी है। 
और का चाहे जितना सूध-बुध ,
रखलो ,वह तो छोड़ेंगे। 
उनके छूटन में लूटन है। 
केवल इस रिश्ते में प्रेम। 
इसे संभालो, सहज के रक्खो ,
जीवन का तुक इसमें है। 
बाकि सब है खाना-पूर्ती ,
यह रिश्ता तो शाष्वत है। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Sunday, October 30, 2016

दीपदान का पर्व सुहाना

दीपदान का पर्व सुहाना। 
मंगल गीत, मंगलमय हो। 
गण-गण -गण गणपति देवा तो,
रिद्धि-सिद्धि सभी कुछ दें। 
पूर्ण कामना के पालक वो ,
सब में प्रेम सुध भर दे। 
धन,वैभव , लक्ष्मी ,सम्पदा ,
हर जान को सिद्ध वर दें। 
दीपदान का पर्व महान है। 
आरती पूजा अर्चन हो,
सरे नर तन आल्हादित हों ,
धूम धड़ाका करते जोर। 
पोर-पोर ,हर रोम-रोम में ,
ख़ुशी लहार दौड़े बौराय। 
प्रेम सुधा का अमर पर्व यह ,
सब को संभव दृष्टि दे। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव-

Saturday, October 29, 2016

सजाओ अब दीपक दिवाली है आयी

सजाओ अब दीपक दिवाली है आयी। 
सुखद रागनी का सलोना दिवस है। 
सजाओ घरों को महक रोशनी से। 
बिछाओ वह बिजली की चादर सुहानी। 
लगे घर सलोना , अजब दीप्ति होगी। 
मनो में यही प्रेम दीपक जलाओ। 
बनाओ नगर को , होये प्रेम पूजा। 
सभी में हो एका न लागे कोई दूजा। 
कि सब डोल, बोलें-यही प्रेम पूजा। 
सड़क हो , दुआरे पड़ाका बजाओ। 
ख़ुशी अब है आयी दिवाली मनाओ। 
वह मुन्ना 'औ' मुन्नी ,मिठाई भी खाओ। 
सरल भाव से तुम दिवाली मनाओ। 
खिले रूप मन में अमर दीप बनके। 
यही लौ हमेशा मनों में जगाओ। 
        सजाओ अब दीपक दिवाली है आयी। 
        सुखद रागनी का सलोना दिवस है। 

सभी मन के उपवन में दीपक जलाओ। 
बड़े गौर से फिर वही गीत गाओ। 
वतन पे मरे जो , वही तो वतन के। 
है वार्ना अकेले तुम बोलो 'औ' जाओ।  
नहीं चाहिए इस जगत मे वह प्राणी। 
जो झूठे का केवल पुलिंदा सुनाये। 
फकत बस नज़र से नहीं देख जाओ। 
वतन के तुम हो, कुछ वतन का सुनाओ। 
      सजाओ अब दीपक दिवाली है आयी। 
      सुखद रागनी का सलोना दिवस है। 
 
घरों में अँधेरा मिटाओ दिया से। 
वही बात मन में ,अंधेरा जो छाया। 
उसे प्रेम दीपक से फिर जगमगाओ। 
ख़ुशी का दिवस है ,मगन गीत गओ। 
हो रोशन भी भीतर ,दिवाली मनाओ। 
रहे पास जो भी वतन के वो प्राणी। 
तिरंगे का मोहक लगन तुम जगाओ। 
      सजाओ अब दीपक दिवाली है आयी। 
      सुखद रागनी का सलोना दिवस है। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -













Friday, October 28, 2016

धनतेरस तेरा अभिनन्दन

धनतेरस तेरा अभिनन्दन , माला-फूल,रोली,चन्दन।
मन भाव से तेरा हम करते , पूजा अर्चन 'औ' निज वंदन।
यह पर्व सुहाना आता जब , सब डोल-हाट में जाते हैं।
वहं विविध प्रकार के फल-मीठा ,आभूषण खूब खरीदते हैं।
अपनी-अपनी  क्षमता लेकर , जनलोग खरीदारी करते।
यह पर्व सुहाना मंगलमय ,वर्षों भर मंगल करता है।
गणपति,भोलेसुत ,गणनायक ,लक्ष्मी संग पूजे जाते हैं।
अमोद-प्रमोद से हर्षित सब ,भावों का पुष्प चढ़ाते हैं।
निर्विघ्न करो हे गणनायक ,जीवन में सुख की बेल बढे।
मन में भावों का यही पुंज लेकर सब उन्हें भजते हैं।
कहते हैं हे लक्ष्मी-गणेश-हर रोज हमारे अंगना में,
लक्ष्मी,वीणा का स्वर गूंजे ,बस और क्या इच्छा है मेरी ?
मानव मन में बस प्रेम जगे , इस  भाव से सब कुछ मिलता है।
जीवन का पावन सब उपवन ,तेरे गूंजों से सिंचित हो।
धनतेरस तेरा अभिनन्दन , माला-फूल,रोली,चन्दन।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Thursday, October 27, 2016

कर्ण का पश्चाताप -2

तुम धन्य हो भ्राता,तुम्हें कोटि धन्यवाद है ,
अब तो नहीं मेरे ह्रदय में कोई भी विषाद है।
तुम अंग होगे राज्य के ,नेतृत्व तेरा हो प्रवीण।
जो साथ तेरे पार्थ हैं ,कृष्ण 'औ' कन्हैया हैं सही।
उनके शरण में तुम रहे ,मैं भी हुआ हूँ धन्य अब।
अविराम श्याम मनोहरी ,अद्भुत छटा अविराम तुम।
है बस तुम्हें प्रणाम केवल ,बस तुम्हे परणाम है।
तुम लघु भ्राता पर तुम्हें धर्मराज कहते सभी।
तुम ही बढाओ देश में,निज कुल के अब तुम नाम को।
जो भी हुआ , जो हो रहा उस चराचर की महिमा सही ।
मुझको नहीं कुछ ग्लानि अब  ,अब तो यहाँ पर चल रहा।
अविराम भारत वर्ष को श्रद्धा सुमन मैं दे रहा।
मैं चला सुखधाम ,तुम सब इस धारणि पर ही रहो ।
जो शेष है कुछ काम , उसको पूर्ण अब तुम ही करो।
जयराम ,जय-जय राम ,और मोहन की बोलो जय कहो।
सुखधाम है , सबकुछ यहीं , मुरली जहाँ पर बज रही।
अविराम ,श्याम की मनोहरी छठा ,ही और ही निखार रही।
हे कृष्ण हे राधा ,राधा कन्हैया बस तुम्हे परणाम।
 धरती , धरा तुम्हें कोटि कोटि अविराम और प्रणाम।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -









Wednesday, October 26, 2016

कर्ण का पश्चाताप

अभिशप्त जीवन जी रहा हूँ ,जन्म से मैं पार्थ तो। 
संकोच , लज्जा ,आवरण की पालकी ढोता रहा। 
माँ हमारी थी मगर ,पर आंचलों से दूर था। 
माँ दुग्ध से वंचित रहा ,पर लाल था इस भूमि का। 
सर्वस्व देने की रही ,बस लालसा युवराज को। 
पाखंड से जो छल रहा था , राज्य के अधिकार को। 
झूठी शपथ , प्रतिशोध की जो अग्नि में जलता रहा। 
सब कुछ लूटा कर अंत में ,जो काल से कवलित हुआ। 
वह उम्र भर लड़ता रहा ,छल 'औ' प्रपंच करता रहा। 
भाभी जननी का न उसे सम्मान मन में था कभी। 
मेरे बलों पे पार्थ तुमसे वह सदा भिड़ता रहा। 
धीरज धरम को त्याग कर ,अपमान वह करता रहा। 
संकोच में , ऋणभार चलते मैं सदा खामोश था। 
मामा शकुनि के घात से भी ,वह सदा अनजान था। 
जो प्रेम के आवरण में , घात ही करते रहे। 
निज बहन खातिर वे सदा प्रतिशोध में जलते रहे। 
जो-जो सिखाया उन्होंने , वह वही सब करता रहा। 
वह क्यों हुआ ? किस वास्ते ? इस अर्थ को जाना नहीं।
सर्वोच्च जीवन में सदा , निज मामा को माना सही। 
अब दुखत्तर सांध्य को मैं हाँथ जोड़े हूँ पड़ा। ........ (शेष कल )

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -





  

Tuesday, October 25, 2016

हर मोड़ पर तुम्हारे , आहट के चिन्ह मिलते।

हर मोड़ पर तुम्हारे , आहट के चिन्ह मिलते।
खामोश तुम रही हो , मुखड़ों के बिम्ब खिलते।
मुझे याद है तुम्हारा , सुन्दर सलोना मुखड़ा ,
ऑंखें तो झिल कमल थीं ,अधर गुलाब टुकड़ा।
चलती थी तुम तो ऐसी , जैसे कापें जलज हों ,
सुन्दर यौवन तुम्हारा ,सब नाक-नक्श अच्छे।
स्वर में मधुर मधुरता ,बस मीठा-मीठा पन था।
शरमा के झुक जो जाती ,जुम्बिश सा बदन होता।
हर बात हर पहर में ,तुम आज भी हो शामिल।
शरीर तो नहीं है ,पर तुम ह्रदय में अब भी ।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव - 

Monday, October 24, 2016

मनुष्य प्रतापी वीर हो तुम।

घुट-घुट करके मत जिओ तुम ,
मनुष्य प्रतापी वीर हो तुम।
जीवन पहर-पहर पर लेता ,
अग्नि परीक्षा चलने दो।
अग्नि में तप करके सोना ,
और खिला खिल जाता है।
वैसे ही जीवन चलता है ,
लक्ष्य करो पथ डट जाओ।
अगर-मगर सब कुछ चलता है ,
जीवन की संगतियाँ हैं।
जो भी डरा ,हटा निज पथ से ,
समझो वह गल ताल मिला। 
ऐसे में क्या घबराना है ,
मनुष्य प्रतापी वीर हो तुम।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Sunday, October 23, 2016

जब मौत मेरी आये

जब मौत मेरी आये ,बस काम यही करना।
दो बूँद मानवता के ,आंसू  छलका देना। 
वैसे तो गज़ब के लोग ,जीवन में मिलते हैं।
वह बातें करते हैं , अच्छे ही बनते हैं।
पर पीठ में वो तो बस , खंजर ही चुभोते हैं।
मेरी मौत पे ऐ यारों , ऐसों को भगा देना।
बस साथ हमारे वो ,जो हमने किया यारों।
दुःख सुख जो भोगा है  ,पैगाम ही जायेगा।
बाकी तो दुनिया में ,सब यहीं रह जायेगा। 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Saturday, October 22, 2016

राम नाम के पटतरे

राम नाम के पटतरे , बोट मिले रघुनाथ। 
माया ऐसी रच दो ,कुर्सी के हम साथ। 
फिर देखेंगे आपको,कहाँ बसाया जाये। 
लुटिया अब तो डूबती , पार करो रघुनाथ।
जनता गूंगी - बाहरी ,इसका क्या है मोल। 
एक ही लालीपाप में , रीझेगी खुब जोर। 
बोल के नारा राम का ,सब कुछ हो श्रीराम। 
आप हमारे नाथ हैं ,हम सब तुम्हरे दास। 
इसी आस में राम अब ,समर जीत हम जाएँ। 
अंतिम तुम तो आस हो , पार करो रघुनाथ। 
बलवा , जाति ,संप्रदाय तो सब तोहरे हैं दास। 
करो कृपा कुछ फिरसे सही ,रही सही बच जाये। 
तुम्हारे शरण में नाथ हम , आये हैं कर जोड़। 
पार करो रघुनाथ अब ,कुर्सी का है मोह ।  


उमेश चंद्र श्रीवास्तव-

Friday, October 21, 2016

गद्य और पद्य

गद्य पुरुष है औ पद्य स्त्री ,
आदिकाल में दोनों अलग ,
विलग-विलग सत्ता दोनों की। 
लेकिन धीरे -धीरे ,
समय के प्रवाह ने ,
दोनों को समान कर दिया। 
आज रचे जा रहे -
पद्यमयी गद्य ,
औ' पद्य तो गद्यमयी हो ही गया। 
शायद इसी लिए पद्य में ,
नारी में वह लयता ,
वह कल्पना लोक, 
वह विभक्ति , चुप-चाप,
धीरे-धीरे खिसक गयी है ,
बिलकुल हमारी ,
आज की कविता की तरह। 

Thursday, October 20, 2016

फिर वही मुस्कान लेकर आ गयी हो।

फिर वही मुस्कान लेकर आ गयी हो।
फिर मुझे बेचैन करके भा गयी हो।
रूप की सागर तुम्हे मैं क्या कहूँ अब।
ढाई आखर प्रेम में समां गयी हो।
कोई तुमको प्रेम की देवी कहे है।
कोई तुमको प्रेम पूजा मान बैठा।
पर सदा से तुम बनी श्रद्धा की देवी।
समानता के डोर की पतवार तुम हो।
औ ह्रदय के भाव की उद्गार तुम हो।

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, October 19, 2016

दोनों रचनाएँ महाग्रन्थ -3

यह भारत देश , यह भारत देश।
आपा-धापी में जीते सब।
भागम-भाग मची भाई।
बच्चे घर में जो छोटे हैं ,
उनके लिए है प्लेस्कूल।
माता 'औ 'पिता को कहाँ रही ,
बच्चे को दे निज मन ममता।
अब दौड़म- दौड़ है मची हुई ,
बच्चा पल जाये पैसों बल।
कल-कल जीवन अब कहाँ रहा ,
कल-कल में जुटे हैं सभी मनुज।
पैसे के खातिर काट-पीट।
मिल जाये कुर्सी उच्च अगर।
सब मेल-मिलाप जुगाड़-वाड़ ,
कुर्सी के लिए मची भाई ,
अब तुम्हीं बाताओ ऐसे में,
क्या बच पायेगी निज निजता।
यह भारत देश ,यह भारत देश।
नेता अभिनेता बने हुए।
जैसी पब्लिक वैसा बोले।
धमनी में रक्त प्रवाहित जो ,
उसका भी होता मोल-तोल ,
साहित्य जगत के पुरोधों,
अपनी ही बातें रखते हैं ,
जनहित, जनइच्छा से बिसरे ,
वह रचते सब कुछ अपने हित ।
अब कहाँ 'गोदान 'लिखा जाता।
अब 'होरी' की मरजाद कहाँ ?
अब 'धनिया' जैसी कल्पतरू ,
नारी भी मिलती कहाँ इधर।
सब कुछ ,सब कुछ है गड्ड-मड्ड ,
अब देश की किसको चिंता है।
अपना हित ,अपना कुनबा -
बस इसी बात की फिकर हुई।
 क्या -क्या बतलायें बात तुम्हे ?
सब कुछ तो होता दीख रहा।
ऐसे में भला मेरे भाई ,
क्या-क्या बतलायें अब तुमको ?
यह भारत देश ,यह भारत देश।

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -




  

Tuesday, October 18, 2016

दोनों रचनाएँ महाग्रंथ -2

यह भारत देश ,यह भारत देश ,
सीता जैसी अब नारि कहाँ ?
द्रोपदी का वरन वह करती हैं। 
पर रहा समर्पण वाला सच ,
वह भी तो नहीं नज़र आता। 
जिसको ,जो भी भा जाता है ,
वह उससे नाता जोड़-तोड़ ,
उन्मुक्त पवन के झोके सा ,
चलतीं रहतीं हैं इधर उधर। 
सैंयम नियम का भान कहाँ ,
जो भी मन भाये, रमे वहीँ ,
कुछ वक्त ठहर कर, हे मानव ,
वह ठौर बदल के गयीं उधर। 
सुविज्ञ यह समझो बात जरा -
इसमें हमारी संस्कृति क्या ?
परिहास हो रहा मूल्यों का ,
चिंता किसको है इसकी भला। 
जीवन तो अब है कला -कला। 
क्या ऐसे में हो पायेगा ?
जीवन में सुप्रभात मधुर बेला। (शेष कल ) 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


 

Monday, October 17, 2016

दोनों रचनाएँ महाग्रंथ

दोनों रचनाएँ महाग्रंथ ,
एक 'रामायण' एक 'महाभारत'।
दोनों में भाई मूल स्वर ,
एक में भाई का भाईपन ,
गद्दी देने की होड़ लगी।
दूजे में एक इंची भूमि ,
देने को भाई राजी नहीं। 
है एक समाज पर काल अलग। 
कैसी समता कैसा विरोध। 
यह भारत देश यह भारत देश। 
यह भारत देश हमारा है , 
जिसमे हम रहते बन प्रदेश। 
कैसा यह झगड़ा आज बना ,
इनका प्रदेश ,उनका प्रदेश। 
सत्ता के भी गलियारे में ,
यह चला-चली का खेल वार। 
कोई पानी के नाम लडे ,
कोई को चाहिए नव प्रदेश। 
भाईचारा की बात कहाँ ?
महाभारत का अंग देश। 
'रामायण' घर घर पढ़ते हैं ,
पर गढ़ते सदा 'महाभारत'। 
अब कहाँ रहे कृष्णा भाई। 
अब कहाँ बांसुरी बजती है। 
अब राधा कहाँ श्रृंगार किये ,
कृष्णा के बगल ठहरती है। 
अब सोलह श्रृंगार का युग गया। 
अब हाथ से चूड़ी-कंगना गया, 
अब नारी नग्न कलाई ही,
चलती फिरती है इधर-उधर। 
सब बात इसी में छिपी हुई। 
खोलो कुछ ऑंखें ,खोल देख -
यह युग जो आया-आया है। 
इसमें सब चलते अनमेल। 
यह भारत देश यह भारत देश। (आगे कल )






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -




Sunday, October 16, 2016

कजरारे नयन तेरे

कजरारे नयन तेरे , माथे पे चमक बिंदी।
गलों में गुलाबीपन ,अधरों पे चटक लाली।
बदनों में अजब खुशबु ,तू चलती मतवाली।
देखा तुझे जब-जब मैं ,मय की तू लगी प्याली।
उस प्याले में क्या है , जो तेरे बदन में है।
तू चलती बलखा के , प्यालों में भला क्या दम?
तेरे में नाश जो है , उसमे तो भला क्या है  ?
तू रोज संवरती है , उपवन सी खिलती है।
तेरे में परस जो है ,गैरों में कहाँ हमदम।
तू बस निकले ऐसे , हर रोज कहेंगे हम।
कोई दुःख के बदल ,तेरे ऊपर न आएं।
बस यही दुआ मेरी  , तू फूल सा महकाये।

उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 

Saturday, October 15, 2016

मुझे कुछ फूल खिलाने दो

मुझे कुछ फूल खिलाने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
सजन को पास तो आने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
उन्हें कुछ नखरा करने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
उनकी बातों में दम है ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
सुधियों को तजा होने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
थोड़ा प्यार तो होने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
नज़र का तीर तो चलने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
फकत एक झीनी चादर है ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
जरा कुछ झीना हटने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
बहुत ही बातें करनी हैं ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
थोड़ा वह बात तो खुलने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
उनको लिपट के कहने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
जरा कुछ खंजर चलने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
जरा कुछ कविता कहने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
उन्हें कुछ व्यंग्य तो करने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
जरा कुछ संतति बढ़ने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ।  
जरा संपाति बनने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ। 
भरा जो रावण अंदर है ,उसे बहार क्यों जलाते हो?
जरा मनमंथन करने दो ,जगत में इसीलिए आया हूँ।  


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Friday, October 14, 2016

मात कर्म 'औ' कर्म आश्रित जीव है जीता जग में।

मात कर्म 'औ' कर्म आश्रित जीव है जीता जग में।
धर्मक्षेत्र 'औ ' कार्यभूमि संलिप्त सदा जीवन भर।
ललन-पालन में दृढ़ता हो ,जीव बढ़ेगा आगे।
जैसे भू में बीज पड़ा ,पर स्फूर्ति धरा से मिलती।
वैसे जीव माँ गर्भस्थ , आने पर भी आश्रित।
उम्र बढा तब होता जाता माँ से वह निराश्रित।
पर संस्कार सदा जीवन भर , माँ की इच्छा पोषित।
माँ बिन कोई अस्तित्व नहीं है जीव का इस भू जग में।
प्रथम गुरु जीवन भर गुरुतर माँ रहती है दृग में।
माँ पूरित है यह संतति , माँ की अमरता दृढ है।
माना जग में , रम्भ काल से माँ से ही सब जन्मे।
बीज का है अस्तित्व मगर वह जननी बिना निराश्रित।
माँ की महत्ता सर्वोपरि है , जग भर प्राणी जान।
माँ ही है अनमोल धरा वह समस्त जीव जहँ रहते।
सबकुछ सहती है जननी पर रहती संतति हित रक्षक।
सदा-सदा  से माँ है पूजित, नमन उसे बस कर लो।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Thursday, October 13, 2016

कजरारे नयन नहीं फिर भी ,

कजरारे नयन नहीं फिर भी ,
मुखड़े पर दमक तुम्हारी है।
है पांव में पायल नहीं मगर ,
रुनझुन की थाप तुम्हारी है।
चलती हो ऐसा लचक-लचक ,
अंदाज़ तुम्हारे कुछ ऐसे ,
बादल में बादल चल जैसे।
कुछ तनिक जरा रुक जाओ तुम।
कुछ बरसो बदल सा तुम भी।
न हो पूरा पर कुछ-कुछ तो ,
रस बूँदें ठहर इधर भी तुम ,
कुछ-कुछ-कुछ तो टपका जाओ।
दीवाने तेरे बहुत मगर ,
तुम रुक जाओ , तुम रुक जाओ।
अंदाज़े तीर चला बदल ,
ओ बदल ,तेरा सवागत है।
बदल सा तुम कुछ कर जाओ।
              कजरारे नयन नहीं फिर भी ,
              मुखड़े पर दमक तुम्हारी है।

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, October 12, 2016

विजय पर्व

विजय पर्व, उल्लास, सहज समृद्धिशाली।
शील, बिनय "औ" प्रेम सदा सहोदरवाली।
लोक बने महान, अतुल हो वैभवशाली।
कीर्ति फैले विश्व पटेल पर सुखदवाली।
जन मन में से दोष, मोह "औ" ईर्ष्या क्षय हो।
वीर बहादुर सैनिक रण पर डेट रहे वो।
हम सब के हैं बंधू, पुत्र "औ" सहज रहे वो।
दुश्मन के सीने पर मारे गोली सारी।
जो भी शीश उठाये विद्वेष भाव से
उसको वह तो गर्त मिला हो वैभवशाली।
विजयदशमी पर्व सदा हर वर्ष है आता।
राम हमारे राम, शक्तिके अतुल प्रदाता।
उनका ही अनुसरण करे हम सब जन मिलकर।
मस्तक ऊंचा करे सभी तिरंगा धारी।
भारत माँ पर गर्व, गर्व है इस वसुधा पर।
प्रेम परस्पर बाटे "औ" हो अतुलितबलशाली।
                                                                  -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Tuesday, October 11, 2016

हे शक्ति प्रदाता माँ जननी !

हे शक्ति प्रदाता माँ जननी ,
विजयादशमी है पर्व तेरा ,
तुमको हो बारंबार नमन। 
श्री राम शक्ति की प्रेरक तुम ,
मानस में तेरा रूप बसा ,
तन मन से , जो तन्मयता से-
तेरी आराधना करे अगर ,
तू उसको देती शक्ति रूप। 
वह मानव जग में पा जाता ,
सुख , समृद्धि 'औ' शौर्य गान। 
तेरे आशीष से हे माता ,
वह जग जीवन में प्रगति छोर ,
नित आगे बढ़ता दृढ़ता से ,
सब निज कारा दूर हटा। 
विजयी-सिजयी सब होता है -
तेरी अराधना के बल पर। 
माँ शक्तिमयी करुणा की पुंज ,
विजयादशमी का महत्व है तू। 
तूने ही कृपा करी रघुबर,
रावण दुर्दांत  को रण मारा ,
भाव दुनिया को आतंक मुक्त ,
रावण का राज्य मिटा डाला। 
माँ आज परिस्थिति ऐसी है ,
राक्षसी वृत्त को मार-त्याग ,
मानव जग जीवन में होये ,
केवल दुलार 'औ' प्यार-प्यार। 
माँ यही हमारी इच्छा है ,
सब नर तन को हर्षित कर दो ,
आये न विपत्ति कभी यहाँ -
सब जन मन को समृद्धि दो। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
 





Monday, October 10, 2016

-: उस पार सखे अविराम धाम :-

उस पार सखे अविराम धाम ,
बिन पग के सारा काम धाम। 
बिन कान सुने है राम-राम,
बिन कर के पूरा काम-वाम। 

इस पार सखे सुखधाम-धाम,
जीवन है जीवित आविराम। 
सब सुख का सागर जहाँ-तहाँ,
मानव,जगजीव है यहाँ-वहां। 

इस पर सभी कुछ संभव है,
उस पर का भ्रम है बिना काम। 
यह जग सच्चा, यह जग अच्छा ,
है दया ,क्षमा  'औ' प्रेम त्याग। 

जगती का सारा जग दुलार,
पूछकार स्नेह है आर पार.
यहं पर जीवंत है मनुहार,
संसार वार सब कुछ यहं है। 

यह है जगती का अमर द्वार  
इस पार सभी कुछ संभव है। 
उस पर का कैसा जग भव है ,
सब भ्रम की बातें वहां-वहां। 

है कौन देवता कहाँ-कहाँ ,
कैलाश शिखर है इसी पार। 
जहाँ पर रहते कल्याण धाम,
सब यहं रहकर ही करते हैं । 

कल्याण काम,कल्याण राम,
फिर कौन कहाँ है उस पार। 
सब झूठा मिथ्या राम राम ,
उस पर सखे अविराम धाम। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव-


Sunday, October 9, 2016

दशहरा का मेला -३

दशहरा का मेला, लगा है यह मेला। 
चला जा रहा है यहाँ रेले पे रेला। 
यह मेला है भाई दशहरा का मेला। 
सजी हैं मोहल्ले-मोहल्ले में दुर्गा। 
वहां भीड़ खूब है  भजन हो रहा है। 
सभी भक्त सारे लगन से खड़े हैं। 
'औ' माता के दर्शन किये जा रहे हैं।  
उसी बीच मेला में चौकी है आई। 
इधर की उधर जा के भीड़ समायी। 
बहुत 'रश' ,बहुत है ,चलना है मुश्किल। 
उसी बीच रोता है ललना किसी का। 
सभी कह रहे हैं , उसे चुप कराओ। 
भजन गा के या बसुरिया दिला के। 
वह ललना की माई कहे जा रही है। 
हे भइया हे चाचा दुहाई है भाई। 
यही प्रेम तो है जो मेला कराता। 
नहीं द्वेष कोई यहाँ जग है आता। 
यहाँ संस्कृत भी यहाँ सभ्यता भी। 
यहाँ संस्कारित हैं जन भी बहुत से। 
बचा के वो चलते दिखा के वो चलते। 
वो कहते उधर से इधर आके देखो। 
यहाँ प्रेम का तो बहुत खूब मंजर। 
यह मेला है भाई दशहरा का मेला। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


Saturday, October 8, 2016

दशहरा का मेला-2

यह मेला है भाई, दशहरा का मेला।
चला जा रहा है,  यहाँ रेल पे रेला।
डमाडम-डमाडम अब डमरू बजा है।
वह चौकी में भोले, ठुमुक नाचते हैं।
उमा सुकुमारी है आती लजा के।
है कहती- भगेड़ी है कहा भांग पीसू।
है पौरुख नही अब, कहा मैं तो जाऊ।
बिहँसते हुए बोल पड़ते है शंकर। 
बिना पीसे लाओ मैं भोग लगाऊं।
मनोहर छटा है यह चौकी निकलती।
चली जा रही है, चली आ रही है।
वह मुरली की चौकी जहा कृष्णा-राधा।
मधुर तान बंसी यह अद्भुत छटा है।
सभी देख बोले कन्हैया है नटखट।
वो देखो छकाते हैं, राधा को मोहन।
औ राधा भी ऐसी मगन हो रही है।
मुरलिया की धुन में अगन हो रही हैं।
यह मेला है भाई, दशहरा का मेला।

दशानन की चौकी विकट की सजी है।
वह देखो- अब दूजी चौकी भी आयी।
जहा वीर सैनिक फतह कर रहे है।
यह भारत है माता सजी खूब चौकी।
उन्हें वीर सैनिक नमन कर रहे है।
बहुत से ही बिम्बो की झांकी मिलेगी।
सभी के ह्रदय में रंगोली खिलेगी।
यह मेला है भाई, दशहरा का मेला। (शेष कल)
                                                     -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Friday, October 7, 2016

दशहरा का मेला

दशहरा का मेला ,लगा है यह मेला।
चला जा रहा है ,यहाँ रेले पे रेला। 
कोई पैंट गांठे ,कोई जीन्स चापे। 
कोई टोपी , हैट ,कोई सूट लादे। 
चले आ रहे हैं, चले जा रहे हैं। 
अजब है रवानी ,लगाए लिपस्टिक। 
पहन हील वाली ,वह चप्पल पे चप्पल। 
खटा-खट , फटा -फट ,चली जा रही है। 
थोड़ी दूर जाते ही दिखा है दल तो। 
यह हाथी , यह घोड़ा ,यह चौकी सजी है। 
विराजे हैं उसमे अग्रज साथ लक्ष्मण। 
औ बैठी हुई बीच में जनक नंदिनी। 
छवि है छटा है ,मनोहर-मनोहर। 
लगी लाइटों की यह कैसी रंगोली। 
बिहंसते हैं चेहरे ,मुखोटे भी दिखते। 
है ठेलम है ठेला ,दशहरा का मेला। 

निकट पास मे है , कुछ महिला की टोली। 
जो आपस में करती ,हठीली ठिठोली। 
वह कहती बड़ी ही मनोहर है जोड़ी। 
सिया राम बैठे , लखन लाल हँसते। 
सभी को मटक कर , हैं हनुमान कहते। 
बोलो राम की जय ,बोलो जानकी जय। 
यही जय-जय कारों में चौकी निकलतीं। 
चमकती-चमकती कई चौकिया हैं। 
हैं दृश्यों का सागर , भरी लेके गागर। 
वह गांव की गोरी चली जा रही है। 
बहुत खूबसूरत ही चौकी सजी है। 
सभी देख मोहित 'औ' सोहित हुए हैं। 
अंगरखा लपेटे , लगा लाल चन्दन। 
ये पंडित जी तो हैं चले आ रहे हैं। 
किया आरती भी ,चढ़ावा चढ़ाया। 
लगे बाँटने वे खुशी की मिठाई। 
है बच्चे उन्हें देख करते ढिठाई। 
बिदकते हुए वह कहे जा रहे हैं । 
हे ललुआ हे कलुआ ,बहुत हो गया अब। 
अब जाओ यहाँ से नहीं मार देंगे। 
बहुत ही है मोहक यहाँ दृश्य दिखता। 
यह मेला है भाई ,दशहरा का मेला... ।  (शेष कल )


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -




Thursday, October 6, 2016

चौखट से बेटी विदा हुई ,

चौखट से बेटी विदा हुई ,
पापा के आंसू भर आए। 
माता , बहना 'औ' भाई भी ,
सिसके-सिसके जीभर रोये।
जाये जिस घर मेरी बेटी ,
ससुराल का वह सम्मन करे। 
पति,सास,ससुर,ननद,बुआ ,
सब को ही नित्य प्रणाम करे। 
सेवा से अपनी बेटी तो ,
सब जन के मन  हरषाये।
विध्वंसक बातें कभी न हों ,
सदभाव की अमर बेल बढे।
बेटी तुम वहां रहो ऐसा ,
उनके कुल का ही नाम बढे।
पापा तो दुआएं देते हैं ,
तेरा घर सदा खुशाल रहे।
कष्टों की आंच कभी न हो ,
तेरे ससुराल की शान बढे।
तू हँसी-खुशी से रहे वहां ,
पापा की छाती फूल बढ़े।
पापा का आशीष यही बेटी ,
तू फूले-फले खुशहाल रहे।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, October 5, 2016

यही युग की बलिहारी -2

यही युग की बलिहारी ,
इसी में  दुनिया सारी।
मैसेज दे दो मित्र हो चाहे ,पिता , मात 'औ 'भाई। 
सब मिलजाएँगे इसपर तो ,यह है बहु सुखदाई।
मैसेज नहीं ,उन्हें भी देखो -कंप्यूटर है सच्चा। 
बड़ा-वड़ा चाहे कई हो, सब हैं इसमें बच्चा। 
                                जरा मैसेज कर देखो। 
                                तुम्हे सब मिले यहाँ पर। 
                                जगत का प्रेम परस्पर ,
                                दिखाई यहाँ पे देता। 
                                परम सुख तब मिलता है। 
                                जब कोई 'हैल्लो' है कहता। 
जगत  की वाणी कहता , नहीं है कोई कटुता। 
बने जो शत्रु तुम्हारे ,उन्हें भी देखो सारे। 
नहीं कुछ कर पाएंगे ,कमेंट खुब दे दो प्यारे। 
उधर से तुमको मिलेगा ,ह्रदय में फूल खिलेगा। 
चलेगी मधुर तो वाणी ,बनेगी बात वो सारी। 
मीत , अब शत्रु बनेंगे ,बात खुलकर के होगी। 
मिटेगी सारी 'कारा' , दूर हो संसय सारा। 
प्रेम की अजब रागनी , गीत गायेगी इसमें। 
यही जग की है सीमा ,यही कंप्यूटर महिमा। 
इसे बस ध्यान से देखो,मनन चिंतन कर लेखों। 
                                यही युग की बलिहारी ,
                                इसी में  दुनिया सारी। 
उमेश चंद्र श्रीवास्तव 







 

Tuesday, October 4, 2016

कंप्यूटर का युग आया है

यही युग की बलिहारी ,
इसी में दुनिया सारी। 
कंप्यूटर का युग आया है ,कर लो अब  ईमेल। 
नहीं है जाना यहाँ वहां अब,देख लो सब का मेल। 
दूर -दूर की  अच्छी बातें ,जग भर की सब सच्ची बातें। 
मिनटों में हो जाये ,दबा के बटन तो देखो। 
                                           नज़र कर इधर तो देखो। 
जीवन का सब रंग मिलेगा ,बातें भी रंगीन। 
साजन हो, चाहे हो सजनी ,सब का यहाँ पे मेल। 
जरा तुम फेसबुक को देखो ,जरा उस बुक को खोलो। 
वह न लजाती , न शरमाती ,करती बहुत निहाल। 
देख -देख कर थक जाओगे ,उनका देख कमाल। 
                                   धका-धक बटन दबाओ ,
                                   फटा -फट तुम मुस्काओ। 
हुनर बहुत है इस कंप्यूटर में ,इसकी अजब है माया। 
काया -तो-काया खूब देखो ,पैसे की भी छाया। 
घर बैठे जो काम करोगे ,दाम मिलेगा अच्छा। 
काम है सच्चा ,पैसा सच्चा ,नहीं दगा है कोई। 
ईमेल ,बैंकिंग सेवा है इसमें भरमार। 
नहीं मिलेगा कोई गच्चा ,गर तुम भारत लाल.
                             यही सन्देश है मेरा ,
                             जगत का पट तुम खोलो। 
                             नहीं कुछ मुख से बोलो। ................  (शेष कल )

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -




Monday, October 3, 2016

माँ के दुआरे जागराता ,

माँ के दुआरे जागराता ,
सभी को है भाता,
प्रेम से बोले सब  माता।
भीड़ भाड़ भक्तन की ,
लाइन लगी है ,
माता के दर्शन हेतु ,
भक्त खड़े हैं।
भक्तों से मोल-तोल करते,
पण्डे विंध्याचल के।
भक्तो को खूब भरमाये ,
पंडा उनको नचाये।
पुलिस खड़ी-टोटा सी देखती।
पण्डो की हेकड़ी चलती वहां पर।
सारा प्रसाशन पंगु बना है ।
 पण्डा का बोल-बाला चलता वहां पर।
माँ के दर्शन लिए ,
पैसा जो चढ़ाये।
पण्डा उसे जेब में तुरंत डाले ,
न माँ के चरनन में पैसे चढ़ाये।  
भक्तों पे चले वहां पण्डा की टेकडी।
पण्डा जीभर गारियाऐं ,
'औ' भक्तन केवल मिमियाए ,
ना कुछ कर पाएं।
पांडा से भिड़े जो ,
लत घूसा खाये ,
माँ के दुआरे जाके खूब पछताएं।
पुलिस वहाँ बनी केवल मूक दर्शक।
न कुछ कर पाऐ ।
माँ के दरबार में चल रहा मोल-तोल।
मेलाधिकार को  सब कुछ है मालूम।
फिर भी नहीं कुछ करते,
केवल 'हांक ' भरते ,
बने मूक दर्शक।
कब तक चलेगा भैया यह बोल-बाला ,
कुछ तो करो मेरे भाई।
जिससे भक्तन न ठगे जाएँ।
माँ के वो चरणों में ,
लोट पोट घर आएं ,
खुशी के दीपक मन में जलाये।
नवरात्रि में हरसाएं ,
विंध्याचल दर्शन को जाएँ।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव-









Sunday, October 2, 2016

नव गीत मैं गाउँ नवरातर

नव गीत मैं गाउँ नवरातर ,
नव देवी की भी चर्चा हो।
यह शक्ति बनी कैसे देवी ,
हैं शास्त्र हमारे बतलाते।
शिव मात्र ही ऐसे देव तो हैं ,
जिनके सर्जन से सब उपजे।
दुर्गा हो ,काली या शारदा ,
सब शिव की शक्ति का सर्जन।
वह गृहस्थ नहीं , न कामी है.
बैराग भाव से ओत , प्रोत।
उनके मन में रस भरने को,
उमा अर्धांगिनी बानी हुईं ।
कुछ मन की इच्छा ,दीक्षा पा ,
शक्ति के रूप में रमी हुईं ।
उनका ही अंश सभी देवी ,
उमा जननी हैं जगदम्बा ।
उनके अर्चन से ही मिलता ,
जग में खिलता सब फूल अमर।
वह जगधात्री , वह जग माता,
उनके चरणों में भक्त आता।
श्रद्धा से माथ झुका कर मैं,
 माँ से विनती, वंदन करता।
दे दो माँ - जन-मन पूर्ण बने ,
सम्पूर्ण जगत के सब मानव।
दानव का भाव नहीं उपजे ,
सब वीणा सूत ही बने रहे।
इस में ही मिलता सुख सारा ,
विस्तारित हो 'औ' फले-फूले।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Saturday, October 1, 2016

कारा निज मन का हर दो

माँ का दिवस रोज होता है ,
माँ से ही सब सृष्टि है। 
लेकिन नव दिन मात-चरण का ,
सुलभ विशेष दिवस दिन है। 
श्रद्धा भक्ति से जन सारे ,
माँ चरणों में अर्पण। 
भाव विभोर भक्ति भाव से। 
माँ से करते हैं वंदन। 
माँ तुम धन-धान्य से भर दो,
निज कुटुंब, निज देश को माँ। 
भक्त तुम्हारा सदा रहेगा ,
तुम ही तो जग की माता। 
जिसने पाला कोख में धरकर,
वह भी संतति है तेरी। 
इसीलिए है तेरी महत्ता ,
माँ जग जननी तुम ही हो। 
श्रद्धा भाव ,प्रेम से पूरित ,
जल,माला 'औ'  फूल लिए  ,
अर्पण करता हूँ चरणों में ,
बुद्धि ,बल प्रदान करो। 
भक्त तुम्हारा निस-दिन भजता ,
भक्त का तुम उद्धार करो। 
मोह-माया को त्याग-वाग कर,
जन हित में कुछ काम करे। 
माँ तुम बस यह ही वर दो ,
कारा निज मन का हर दो।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...