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Tuesday, July 26, 2016

चिट्ठियाँ पढ़ ले ओ चितचोर

चिट्ठियाँ पढ़ ले ओ चितचोर |
दूर गगन से मंजुल बातें ,
रिमझिम  सावन की बरसातें ,
नयन भिगो के कह जाती हैं
सुदबुध मे चन्दन सा घोल |
जीवन मिला निभा लो अपना ,
सुंदर सपना मोहक रोल |


सांची जग की सांची बातें ,
सीधी सादी नहीं हैं रातें ,
बादल उमड़ –उमड़ कर चलते ,
मन मे रसना उमड़ रही है ,
दिवस पहरुए लोच मारते
ठगनी काला मचाती शोर |

आवा –गमन यहाँ लगता है ,
मेले मे जन मन खोता है,
सुध बुध का अनमोल जतन कर ,
जीवन के पथ पर आगे बढ़ ,
दिशा , दशा की समतल बातें ,
मंथन कर आएगी भोर |  


                        -उमेश  श्रीवास्तव 

Saturday, July 23, 2016

स्वप्न

अपनी बातें भूल बताओ, क्या-क्या तुम करने आये,
देश से नाता, देश चलने, देश को तुम छलने आये। 
गजब की बातें, गजब के सपनें, रूप बना के आये तुम,
डांडे-डांडे भाग रहे तुम, सड़को को अब छोड़ चलो। 
नाहक फस गए लोग-बाग़ सब, तेरे-तेरे चक्कर में,
तुम तो धूप बने बरसाती, रह-रह तपिश बढ़ाते। 
क्या ऐसे ही देश चलेगा, क्या ऐसे ही होगी प्रगति,
स्वप्न दिखाना कला तुम्हारी, हकीकत से दूर रहे। 
ऐसे में क्या होगा तेरा, छली घमंडी तो तुम हो,
भरमाने की कला तुम्हारी, कब तक तुम दंभी होंगे। 
देश हमारा 'सून चीरैया', माटी में अलमोल रतन,
पहचानो तुम देश को अपने, देश प्रगति पर ले आओ। 
                                                                              -उमेश  श्रीवास्तव 

Thursday, July 21, 2016

गीत

सूरत तुम्हारी वह मन में बसी है ,
नयन तेरे दीदार को हैं तड़पते । 
यह प्यारा गगन है ,यह प्यरी है धरती ,
मगर मुझको कुछ भी तो भाता नहीहै । 
बड़े ही लगन से किया प्यार तुमने ,
बड़े ही जतन से मेरे पास थी तुम । 
मगर वो था झोका , समझ मैं  न पाया ,
तुम दूरी बना के चली अब गयी हो । 
बताओ चमन में खिलाएं कहाँ गुल ,
तुम पूरी गुलदस्ता महक तो रही ही । 
चषक तेरे आहत की खुशबू बिखेरे ,
लूटा  मैं ,लूटा  हूँ ,लूटा  ही रहूँगा । 
यह दर्पण मुझे अब उलहना  भी देता ,
तुम्हारे  लिए मुझसे लड़ता-झगड़ता । 
बताओ कहाँ जा के  देखूँ मैं दर्पण ,
ये दर्पण सताता, मुझी को रुलाता । 
वह सौगंध, कसमे, वो रस्मे जहाँ की ,
जहाँ तुमने मुझसे किये थे वो वादे। 
मगर उनको तोडा है तुमने मरोड़ा ,
मेरा क्या मैं लिपटा हूँ  अबभी तुम्ही में । 
तुम आओ , बनाओ ,घरौंदा सुहाना ,
हो जिसमे महक हो , हो मौसम सुहाना  ।
                                                      -उमेश  श्रीवास्तव 

Wednesday, July 20, 2016

बूंद

बूंद टप-टप नभ गगन से,
आ गया मौसम सुहाना। 
नाच गा लो रंग मस्ती,
हो गया हर्षित ज़माना। 
तपती गर्मी से मिला "औ",
खिल गया चेहरा सुहाना। 
अब तो झूमो बाग़वानी,
खेत में बो लो अब दाना। 
बाह फड़की तन तरंगित,
मन हुआ अब आबदाना। 
आ गयी पंछी तितोलि,
घूमते वे नभ गगन में। 
चुम लेते वह धरा को,
पा रहे चारा वो दाना। 
मन प्रफुल्लित हो गया अब,
छेड़ता मौसमी गाना।   
                                      -उमेश  श्रीवास्तव 

Friday, July 15, 2016

घर

उस  बात बतऊ क्या?
जिस घर में आधी दुनिया हो। 
सब रंगत फीका ही जनो,
जिस घर में रुमझूम भी न हो। 
सुबह "औ" शाम सभी आते,
बाते करते, मुस्काते हैं। 
तनहा से उस घर में केवल,
बस पुरुष-पुरुष ही रहतें हैं। 
उस घर में आने से नारी,
घबराती आवर लजाती है। 
पुरुष वर्चस्व के ही कारण,
नारी भी तो शर्माती है। 
घर घर वीरान सा लगता है,
बिन घरनी भूतों का डेरा। 
लतगा-लगता और खूब लागता,
तुम्ही बताओ बंधू जी। 
यह बात सत्य तो है केवल,
धर्मों का नाता और रिश्ता। 
सब घर घरनी से बनता है,
अब क्या सीये, अब क्या जिए। 
अब तो केवा मन भरमाता,
कुछ भी तो नहीं सुहाता है। 
घर बनता गृहणी से केवल,
सब राग रंग तब सजता है। 
                                      -उमेश  श्रीवास्तव 

Wednesday, July 13, 2016

जितना वो चाहती


जितना वो चाहती है,
 उतना ही पर्व दीखता । 
जितना वो चाहती ,
उतना ही पल्लू गिरता । 
जितना वह चाहती ,
उतनी ही ऑंखें बोलती । 
जितना वह चाहती ,
उतना ही ओठ मौन । 
खिलखिलाते , मुस्कुराते -
चहरे के हाव-भाव ,
रीझाते-उतना ही ,
जितना वह चाहती । 
क्योंकि वह अब -
समझ चुकी  पुरुष की निगाहें ,
उसकी सत्ता और महत्ता । 
                                     -उमेश श्रीवास्तव 

Tuesday, July 12, 2016

अनगढे पथ्थर तराशे जा रहे हैं

अनगढे पथ्थर तराशे जा रहे हैं,
भावना के बिंब उतर के आ रहे हैं। 
वह सुकोमल बालिका का पांव देखो,
और उसकी वह सरल मुस्कान देखो। 
माँ-पिता को प्रफुल्लित कर रही है,
भाव में उनके मधुरता भर रही है। 
कल बनेगी, वह पिता की शान होगी,
माँ के पावन आंचलों की मान होगी। 
संस्कारो की अमर वह बेल बन कर,
अन्य लोगो को बताएगी वह तनकर। 
मत करो अपमान, मेरी भ्रूण हत्या,
मैं अमर हूँ धात्री सुन लो ज़रा तुम। 
मेरे चलते हो रहा निर्माण सारा,
वर्ना बिचरो, बीज का क्या है सहारा ?
मैं दुखों को प्रेम में ही ढालती हूँ,
और पतझड़ में खिली मैं गुल वही हूँ। 
आओ बैठो पास मेरे मैं बताती,
मैं ही हूँ, दुनिया की सारी ही अमरता। 
आओ मेरे पास तुम भी रमण कर लो,
नारी हूँ, शक्ति हूँ, मैं हूँ स्वयं दुर्गा। 
मत करो अवसान मेरा मत करो तुम,
तुम करो सम्मान मेरा, बस करो तुम। 
वरण करती हूँ तुम्हे, आओ चमन में,
गुल जो सारे खिल रहे, वह सब तुम्हारे। 
मैं तुम्हारी, तुम हमारे, जगत  भर सब,
एक ही बंधु 'औ' कुटुंब सारे।
फिर बताओ, राग-द्वेष  का वरण कैसा ?
हम बने नभ के सितारे, सूर्य जैसा। 
जिसके आने से तिमिरपन दूर होता,
'औ' उजाला ही बना नूतन सवेरा। 
                                              -उमेश  श्रीवास्तव 

Thursday, July 7, 2016

दर्शन -दर्शक

शिव स्वरूप शिव लिंग बनाया ,
अर्थ शिवा-कल्याण बताया । 
गणपति-गण-गण के हैं राजा, 
ऋद्धि-सिद्धि उनकी भार्या । 
शुभ 'औ ' लाभ सुता उनके हैं, 
मर्म यही - इनका समझो । 
दर्शन उनका यही बताया ,
पर 'दर्शक' से नहीं है नाता। 
'दर्शक' लिए ही प्रतिमा गढ़कर, 
रूप सरोवर को समझाया । 
अलख जग लो , जग भरमा लो ,
क्या-इससे कुछ तुमको मिलेगा ?
हाँ-मिलेगा ,बहुत मिलेगा ,
जीवन में खूब फूल खिलेगा । 
फूल की चाहत सबको होती ,
लेकिन फल कर्मो से मिलता ।  
 यही एक है बात बतानी ,
किस्सा समझो या कहानी । 
पर जीवन का सत्य यही है ,
बात यही सबको समझनी । 
                                                 -उमेश श्रीवास्तव 



Wednesday, July 6, 2016

छड़िकायेँ

उसके पास सोना है,
इसलिए उसने सब गवाया। 
मेरे पास "होना" है,
इसलिए हमने सब पाय। 
वह रोती, बिलखती,
अपने को कर रही समाप्त।
मेरे पास हसना, खिलना है,
इसलिए मैं हो रहा हूँ आबाद।  
                                              -उमेश श्रीवास्तव 

Tuesday, July 5, 2016

दर्पन

पास दर्पन  हो तो, खुद स्वयं देखिये,
आप अपना खुदा, खुद समझ जाएंगें। 
किसका अच्छा किया, किसका सिर है कलम,
दर्पनो में सभी कुछ समझ जायेंगे। 
मुस्कुराने की आदत यहाँ पल रही,
बस खुदी पर ज़रा मुस्कुरा दीजिये। 
यह है प्यारा जगत,  यहं सुखन है बहुत,
उनकी कविता को हसकर दुआ दीजिये।
वे स्वयं ही बनेंगे दादू, मीरा "औ" गंग,
बस कबीरा को कुछ गुनगुना लीजिए।
                                                       - उमेश श्रीवास्तव 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...