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Thursday, December 28, 2017

लोकतंत्र का समाधान

A poem of Umesh chandra srivastava

मिमियाती बकरियां ,
खिसियाते सांड ,
और गुहार देती पब्लिक ,
कोई सुनने वाला है।
अब स्वयं का है अलाप ,
खुद कर लेते निर्णय ,
क्योंकि मिला है खज़ाना।
एक ओर नौनिहालों  के प्रति ,
तो दूसरी ओर किसान परेशान ,
कोई नहीं ध्यान।
वहीं तीसरी ओर ,
रच रहे दीप दान का मचान।
वाह रे राम ! वाह रे राम !!
तुम्हारी आराधना में ,
हो रहा चहुओर संधान।
कहतें हैं मंदिर बनेगा।
क्या यही है ,
अब लोकतंत्र का समाधान।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, December 26, 2017

एक बंद

A poem of Umesh chandra srivastava

ये , वो सड़क साफ हो गयी , लगता है वो आएंगे।
भ्रम की बातें फैला-फैला कर ,लगता है वो छाएंगे।
वोट की खातिर मारा-मारी ,एक दूजे को ख़ारिज कर।
अपना-अपना राग अलापें ,जन-मन को भरमायेंगे।

उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, December 24, 2017

लोकतंत्र ! सावधान !!



लोकतंत्र ! सावधान !!
आ गया मेहरबान। 
कितना बड़ा सत्य कहता ,
कुछ नहीं किया उन्होंने ,
केवल लूटने के सिवा !
वाह रे ! भाई वाह !!
                                 

                       -उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

Saturday, December 23, 2017

गंग तीर मधु माघ महीना

Poem of Umesh chandra srivastava

गंग तीर मधु माघ महीना ,
दरस-परस सब विधिक सुदीना। 
जो आवत इन माघइ भाई ,
वह नर पुण्य बहुत बिधि पाई। 
यह मत सुमत पुराणहि गाई ,
जन-मत कहहिं बहुत अधिकाई। 
राम अनुज संग सीतहि आई ,
भरद्वाज मुनि अतिसुख पाई। 
गावहिं तुलसिदास यह वचना ,
उन सम कवन कवि करै रचना। 
बहुविधि तुलसी दास यह गावा ,
राम चरण वह अति-सुख पावा। 
कहत-गुनत तुलसी बहुभाखा ,
राम से अधिक नाहिं कोउ राखा। 
राम दरस करि मज्जन पहिले,
तुलसिदास रामहिं पग गहिले। 
(शेष फिर कभी.... )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
Poem of Umesh chandra srivastava

Saturday, December 16, 2017

स्मृति

Poem by Umesh chandra srivastava

वह ह्रदय पटल की क्यारी
मन को मन में मथती  थी, 
 मैं सहम- सहम  सा जाता 
पर वह पवना करती थी। 


उसके ललाट से मुख पर ,
कुमकुम की बूँद बिहँसती। 
उसके सुन्दर मुखड़ों पर ,
आशा  की बूँद छिटकती। 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
Poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, December 15, 2017

तो फिर क्या डरना



उनका कुछ भी कह देना ,
मज़ाक है क्या ?
लोकतंत्र के चौपहिये ,
कब- तक ,
बाजारवाद में रमोगे। 
कब-तक -
मालिकान के हुक्मों की ,
तामील करोगे। 
पेट की खातिर ,
रोटी के लिए ,
कब-तक मरोगे। 
जीवन की सच्चाई है मरना ,
तो फिर क्या डरना। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -


Thursday, December 14, 2017

स्मृति

Poem of Umesh chandra srivastava

वह सखी कुमारी कोमल ,
यादें भी पल-पल हंसतीं ,
कुछ याद सखी की बिहँसी ,
कुछ कसक टीस सी होती।

वह कोमल मनभावन थी ,
पावन मन में सोती थी ,
मैं चहक-चहक कर उसकी ,
रसबूंद सदा चखता था।  (फिर कभी... )



 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
Poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, December 12, 2017

भय का वातावरण दिखाया

Poem of Umesh chandra srivastava 

भय का वातावरण दिखाया,
भयाक्रांत सब लोग यहां। 
बैठक ,भोजन पर आमंत्रण ,
चर्चा है अब लोक , जहाँ। 
शाशन की मर्यादा ऐसी ,
निजता पर ही प्रश्न उठा। 
कब क्या कह दें शाशन वाले ,
इसका अब है मोल कहाँ।     (शेष कल...)



उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
Poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, December 11, 2017

स्मृति

poem of Umesh chandra srivastava 

क्यों मन प्रदीप्त के भीतर ,
वह भोली-भली सूरत ,
बनती है और बिगड़ती ,
वह भोली-भली कीरत। 

आंसूं आँखों से छलके ,
कुछ याद सखी की आयी ,
कुछ स्मृति सी मुस्काई ,
कुछ पल हर्षित से उलझे।    (फिर कभी... )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, December 10, 2017

पत्थर

poem of Umesh chandra srivastava

एक पत्थर सलीके से उछालो ,
आसमान साफ है।
कई समाधान हैं।
पर सलीके से -
पत्थर उछालना ,
देख-दाख के।
कहीं उछाला हुआ पत्थर ,
तुम्हें खुद ही ,
चोटिल न कर दे।
पत्थर है भाई।
संवेदनहीन है ,
ऐसा कह सकते हो।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव - 
poem of Umesh chandra srivastava

Saturday, December 9, 2017

मुट्ठियां मत भींचो

poem of Umesh chandra srivastava 

मुट्ठियां मत भींचो ,
तोरियां मत चढ़ाओ। 
अंगार मत बोलो -
खोलो-अपने मन का द्वार ,
जहाँ प्रेम निश्छलता ,
ले रही है अंगड़ाई। 
सत्य को पहचानो ,
अंधता त्यागो ,
आगे खाई है ,
जहां से लौटना ,
मुश्किल है भाई ,
मुश्किल है भाई। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, November 25, 2017

रमई काका-३

A poem of Umesh chandra stivastava 

रमई काका ,
बहुत याद आते। 
गर-आज वो होते ,
तो बताते -क्या सही ,
क्या गलत। 
अब कौन है  ,
यह बताने के लिए ,
यह समझाने के लिए। 
अब तो-हम ,
पूरी तरह से ,
स्वछन्द हो गए। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra stivastava 

Thursday, November 23, 2017

रमई काका -२

poem of Umesh chandra srivastava

कितने सुहाने दिन ,
जब हम स्वतन्त्र थे ,
सब कुछ कहने-चलने ,
खाने बताने के लिए।
मगर अब हम बड़े हो गए ,
यानि समझदारी के ,
उस पड़ाव पर खड़े हो गए ,
जहाँ सब नाप-तौल ,
जहाँ सब नफा मुनाफा ,
सब बचा खुचा को ,
बनाने के चक्कर में ,
सवांरने के लिए ,
सिर्फ स्वतंत्रता को छोड़कर। (जारी... )


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, November 21, 2017

रमई काका -1

poem by Umesh chandra srivastava

रमई काका ,
बहुत याद आते। 
जब भी पानी की फुहारें-छिटकतीं। 
जब भी आँखों का पानी झरता। 
जब भी बेहयायी नाचती। 
जब भी लुटेरे-लूट जाते कुनबा। 
रमई काका ,
बहुत याद आते।     (जारी )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
poem by Umesh chandra srivastava

Thursday, October 19, 2017

दीप का पर्व सबको , मुबारक यहाँ।

poem by Umesh chandra srivastava 

दीप का पर्व सबको ,
मुबारक यहाँ। 
सत्य की ज्योति ,
हरदम ही जलती रहे। 
सत्य ही है वही ,
सबका का हित जो करे। 
सत्य को खोलना ,
यहां मुश्किल बहुत। 
सत्य खिलता ,
सदा आवरण में सुखद। 
सत्य की बानगी ,
हर तरफ है इधर। 
राम बन को चले ,
माता झुंझला गयी। 
मात को तब वही ,
सत्य कहकर चले। 
वन में साधू-सन्यासी ,
ऋषि हैं बहुत ,
उनसे ज्ञानों का अर्जन करूंगा सदा। 
माता सुनकर प्रफुल्लित ,
हृदय मग्न हो ,
राम को वन गमन का ,
आशीष दिया। 
ऐसे कितने उदाहरण ,
पड़े हैं यहाँ ,
वक्त आने पे ,
'औ' खोल रखूंगा मैं। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 


Thursday, September 14, 2017

हिंदी दिवस पर

poem by Umesh chandra srivastava 

                      (१)
हिंदी में बिंदी का महत्व जान लीजिये ,
सुन्दर सलोने शब्द को पहचान लीजिये। 
भाषा सुदृण है ज्ञान का अनमोल खज़ाना ,
ब्रह्माण्ड की भाषा बने यह ठान लीजिये। 

औरों की बात और है ,सम्मान सभी का ,
है प्रेम शब्द का विविध विस्तार यहाँ पे । 
हिंदी में शब्द ढेर हैं  अंग्रेजी में कहाँ ,
हिंदी हमारी माँ जननि , उत्थान कीजिये। (क्रमसः)




 उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, September 2, 2017

प्रेम उपासना


                       (१ )
प्रेम उपासना ,प्रेम तपस्या ,प्रेम जगत व्यव्हार है ,
प्रेम बिना कुछ भी संभव नहीं ,प्रेम मानों का द्वार है।
प्रेम के चलते हम सब मिलते ,प्रेम परस्पर चलता है ,
मगर बाँवरे कुछ ऐसे हैं ,जिन्हें प्रेम यह खलता है।

                       (२ )
चंदा की चकोरी से कोई बात नहीं है ,
लगता है कई दिन से मुलाकात नहीं है।
वह रोज़ तो निश्चित है जब चाँद खिलेगा ,
तब चाँद स्वयं आके चकोरी से मिलेगा।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Tuesday, August 22, 2017

दो बिम्ब

poem by Umesh chandra srivastava
                 
                    (१)
आस्था का मंदिर बनवाने से बेहतर ,
आस्था का बीज बोया जाये।
समदर्शी बनो-भेद-भाव  त्याग ,
चलो प्रेम का फूल खिलाया जाये।
                   (२)
कभी अनुदान की बातें , कभी निष्प्राण सी घातें ,
समय का चक्र ऐसा है -मिले सब बात की बातें।
अनुग्रह कर रहे हैं जो-समझ लो स्वार्थ कोई है ,
भला बोलो इस दुनिया में कहाँ सौगात की बातें।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, August 18, 2017

बड़े कवि अगर हो ,लिखो बात ऐसी - 4

poem by Umesh chandra srivastava

बड़े कवि अगर हो ,लिखो बात ऐसी ,
धरा का अँधेरा सभी मिट ही जाए।

इन्हें भी हो मालूम ये देखें ज़रा सा,
ये राजाओं का भी करम देख लें कुछ। 
ये ए. सी.  में बैठे बहुत बात करते ,
उन्हें खूब सराहें , मगर वहं न भी जाएँ। 

कहो इनसे वह भी संशोधन कराएं ,
नियम यह बनाएं-वो सरहद पे जाएँ। 
लिखो बात यह भी वो जनता जनार्दन से-
कहें जो करें अपनी निष्ठां दिखाएँ। 
नहीं मुख से भाषण सुनाएँ-सुनाएँ ,
अगर हों वतन के लिए -बात मानें। 
वो सरहद पे जाएँ ,वो सरहद पे जाएँ। 


उमेश चद्र श्रीवास्तव- 
poem by Umesh chandra srivastava 

Sunday, August 13, 2017

बड़े कवि अगर हो ,लिखो बात ऐसी-3

poem by Umesh chandra srivastava

बड़े कवि अगर हो ,लिखो बात ऐसी ,
धरा का अँधेरा सभी मिट ही जाए।

(गतांक से आगे )


पुरंदर बने हम यहां घूमते हैं ,
वहां अपने बेटे ही तन झोंकते हैं।
लिखो बात उनकी वतन के लिए जो ,
वतन पे मरे जो , वतन के लिए हों।

ये नेता , मिनिस्टर को भी सीख देदो ,
वतन के लिए वो भी सरहद पे जाएँ।
खुले मंच पे न ये गालें बजाएं ,
कहो हाँथ ले के संगीनें वहं जाएँ। (क्रमशः कल )






उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, August 11, 2017

बड़े कवि अगर हो ,लिखो बात ऐसी-2

poem by Umesh chandra srivastava


बड़े कवि अगर हो ,लिखो बात ऐसी ,
धरा का अँधेरा सभी मिट ही जाए।

(गतांक से आगे )

पूरी उम्र उनने करी है हिफ़ाज़त ,
ये नेता मगर बात कुछ बोलते हैं।
कहो इनसे जाये 'औ' देखे वो सरहद ,
जहां पे सिपाही लड़े जा रहे हैं।

ख़ुशी में जो झूमे वतन प्रेमी सब जन ,
उन्हें भी कहो-अब संगीने उठायें।
नहीं ठोक ताली यहां बजबजायें ,
वो भी जाके थोड़ा ही बाजू लड़ायें।(क्रमशः कल )


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, August 10, 2017

बड़े कवि अगर हो ,लिखो बात ऐसी

poem by  Umesh chandra srivastava 
 
बड़े कवि अगर हो ,लिखो बात ऐसी ,
धरा का अँधेरा सभी मिट ही जाए। 
वो फूलों की बातें , निगाहों की शोखी ,
मगन हो सजन के लिए लिख रहे हो। 

तो छोड़ो बताऊं लिखो तुम वतन पे ,
जो सैनिक खड़े हैं वहां सीना तने। 
मग्न होके उनका ही धीरज बढ़ाओ ,
वतन के लिए जो ,वतन के हैं प्रेमी।   (क्रमशः  कल )





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by  Umesh chandra srivastava 

Tuesday, August 8, 2017

प्रेम का घनत्व कुछ ज्यादा है

poem by Umesh chandra srivastava

                           -१-
प्रेम का घनत्व कुछ ज्यादा है ,
इसीलिए सब कुछ आधा-आधा है।
वरना कुछ जनों की दुश्वारियां देखिये ,
बाप-बेटे में कुछ भी नहीं साझा है।

                          - २ -
वो रोज़ आते हैं सुबह से शाम तलक रहने के वास्ते ,
रात होते ही चले जाते हैं ,सब बंद किये।
अब तो ज़माना है देर रात तलक , लोग करते हैं ,
सारी तिज़ारत ,छल-प्रपंच ,दंद-फंद अपने लिए।




उमेश चंद्र श्रीवस्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Sunday, August 6, 2017

मुरलीधर को यह राखी बहन बांधती

poem by Umesh chandra srivastava 

मुरलीधर को यह राखी बहन बांधती ,
अब हमारी तुम रक्षा करो भाई तुम। 
हंस के बोले कन्हैया-क्या चहिये तुम्हें ?
हंस पड़ी तब सुभद्रा मगन हो गयी। 
भाई से बस बहन की ये चाहत सुनो ,
रक्षा बंधन अमर हो बहन-भाई का।  
युग-युगों से यह बंधन बढ़े रात-दिन ,
भाई खुश-खुश रहे बहन भी हो मगन। 
ये लगन-ये दुलारा सा प्रेम प्रहर ,
हर समय गूंजे बहना का दिल हो सघन। 
भाई-बहनों का त्यौहार फलता रहे ,
प्रेम की गूँज से ये जहां हो मगन।  




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 






Saturday, August 5, 2017

ये ईंगला ,ये पिंगला , शुषुम्ना ये नाड़ी

poem by Umesh chandra srivastava 

                        (१)
ये ईंगला ,ये पिंगला , सुषुम्ना ये नाड़ी ,
सभी कुछ तनों में बने तुम अनाड़ी। 
कहाँ खोजते फिरते उसको भरम में ,
तुम्हीं हो अगोचर तुम्हीं हो खिलाड़ी। 
                        (२ )
ये कवि का मंच है कविता दिवस हम सब मनाएंगे ,
उन्हें हम याद करके छंद 'औ' कुछ गीत गाएंगे। 
लिखे हैं गीत उनने कुछ सलोने काव्य में देखो ,
बड़ा ही मार्मिक चित्रण 'औ' सुन्दर बोल पाएंगे। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, August 4, 2017

राधिका तुम रहो-हम श्याम की मुरली बजाते हैं

poem by Umesh chandra srivastava 

                                (१)
राधिका तुम रहो-हम श्याम की मुरली बजाते हैं ,
उसी में रीझ जाओ तुम-यहां हम गुनगुनाते हैं।
बड़े खामोश लमहे थे , मिले थे हम जहाँ 'औ' तुम ,
उसी अनुराग का ही सिलसिला अब कुछ बढ़ाते हैं।
                                (२)
कभी तुम हास लिखते हो ,कभी परिहास लिखते हो ,
जगत के ये मनुज हैं जो ,उन्हीं की बात लिखते हो।
तुम्हारी दृष्टि पैनी है ,तुम्हारे तीर हैं सुन्दर ,
लपेटे में नहीं आते ,तुम सीधी बात लिखते हो।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Wednesday, August 2, 2017

तुम्हारा काव्य सुन्दर है ,सभी सम्भाव्य सुन्दर है

poem by Umesh chandra srivastava 

                                 (१)
तुम्हारा काव्य सुन्दर है ,सभी सम्भाव्य सुन्दर है ,
मनुजता के चितेरक तुम ,तुम्हारा राग सुन्दर है। 
कोई पढ़ ले सहजता से , तुम्हारी लेखनी सुन्दर ,
महाकवि तुम उपासक हो , तेरा अनुराग सुन्दर है। 
                                 (२)
हरण जब सीय का होता , तभी सब राम रोते हैं। 
हरण जब चीर का होता ,तभी घनश्याम होते हैं। 
कहो फिर क्या मिलेंगे ,राम 'औ' घनश्याम दोनों अब ,
मिलेंगे धूर्त , भोगी लोग ,अब अविराम रोते हैं। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, August 1, 2017

हुए थे मैथिली जो उर्मिला का गीत गए थे

poem by Umesh chandra srivastava 

                           (१)
हुए थे मैथिली जो उर्मिला का गीत गए थे ,
लखन 'औ' उर्मिला का बहुत बिधि लक्षण बताये थे। 
जहां सीमित रहे तुलसी वहीं का बिम्ब टटोला है ,
सुधी जन देख लो 'साकेत' में क्या बिम्ब खोला है। 
                           (२)
एक लीला धारी ठहरे-मनमोहन घनश्याम रे ,
दूजे धनुष चलाने वाले,राम-राम अविराम रे। 
दोनों का था कर्म विलक्षण-कर्मरत रहे जीवन भर ,
आशाओं के पुंज रहे वो ,राम-राम 'औ' श्याम रे। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, July 28, 2017

बेटियां हैं भवन ,बेटियां हैं सवन

poem by Umesh chandra srivastava 

बेटियां हैं भवन ,बेटियां हैं सवन ,
बेटियों से सजा है यह पूरा वतन। 
बेटियों के ही बल पे चमन फूल है ,
बेटियों से मगन है ये पूरा गगन। 

धूल पर चल रहीं ,शूल में पल रहीं ,
इनको धूपों में पाला गया ये पाली। 
इनपे बंदिश अनेकों पिता-मात की ,
फिर भी देखो चमन में खिली ही खिली। 

अब रुदन का ज़माना नहीं रहा गया ,
बेटे-बेटी में फर्क नहीं रह गया। 
बेटा भी है पढ़े ,बेटियां पढ़ रहीं ,
देखो अब तो सदा बेटियां बढ़ा रहीं। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, July 27, 2017

दो मुक्तक

Umesh chandra srivastava's poem

                  (1)
शब्द को कुछ अर्थमय विस्तार दो,
बिम्ब में भावों का बस संचार दो।
वह नियंता है स्वयं ही रच रहा,
बात के उसके ही बस गति सार दो।

                    (2)
चार पहर से सोच रहा था, तुम भी आओ तोता-मैना,
बरबस निरस-निरस मन होता, तुम ही खिल जाओ तोता-मैना।
 चाँद चकोरी बिरहन तडपे, मत भरमाओ तोता-मैना,
आप तो सहज-सहज रहने दो, तुम भी आओ तोता मैना





उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
Umesh chandra srivastava's poem 

Tuesday, July 25, 2017

माँ की दुआ

Umesh srivastava's poem

सुखद चंदिनी की मगन रात थी वह,
छिटकते संवरते बदल हो रहे थे।
थी मध्यम सी पीड़ा- मगर मन में हर्षित,
निहारे पड़ी थी वह निज लाल को बस।
वह कहती चमकता सा जीवन हुआ है,
चमन में कमलदल खिला है खिला है।
सुखद जोग है यह ललन को लिए मैं,
हूँ हर्षित, मैं पुलकित मगन हो रही हूँ।
यही कल खिलायेगा जीवन की नदियां,
धरा पर बनाएगा अपना स्वयं पथ।
यही मैं दुआ दे रही हूँ तुम जाओ,
चमन में हसो अपना बादल बनाओ।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव-  

Umesh srivastava's poem 

Thursday, July 20, 2017

राष्ट्र के नाम ,नए महामहिम को



हे श्रेष्ठ नमन ,श्रद्धा-पूजा-अर्पण ,
पुष्पों का सुन्दर हार लिए।
है नमन श्रेष्ठ भारत सूत को ,
भावों का पुष्प पराग लिए।

गौरव भारत पर होता है ,
जब आते ऐसे पुण्य पुरुष।
नित नूतन भव्य विचार लिए ,
भारत का गौरव मान लिए।

हिम चोटी उत्तम शिखर बढ़े ,
नदियों में स्वच्छता और बढ़े।
मानव में प्रेम-सहिष्णु बढ़े ,
जीवन में सुगमता आ जाये।

नव चेतन मन हो स्वच्छ-स्वच्छ ,
उसमें किसलय अनुराग बढ़े।
समतल भू-भाग हों हरे-भरे ,
उसमें बीजों का हार बढ़े।

आओ मिलजुल भारत वासी ,
अमनों के प्रति अनुराग बढे।
नैतिकता नूतन सजग तने ,
मनुजों में नव्या विचार बढ़े।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Sunday, July 9, 2017

मेरे जीजा तेरे चरणों में

poem of Umesh chandra srivastava

(50वीं शादी के सालगिरह की पवन बेला पर)

भावों के पुष्प चढ़ाऊंगा , मेरे जीजा तेरे चरणों में ,
रिश्ता नाते दुलराउंगा , मेरे जीजा तेरे चरणों में।

तुम जब बोले-सच्चा बोले , सच्चा तो कड़ुवा होता है ,
कुछ को भाता , कुछ तुनुक जाते , मेरे जीजा तेरे चरणों में।

आदर बहु है सम्मान बहुत ,ह्रदय से बातें करता हूँ ,
जो योग्य रहा ,मंजूर करो , मेरे जीजा तेरे चरणों में।

आशा की पुलकित छाँव में , बादल के सुनहरे गांवों में ,
तुम चिरजीवी बनकर फैलो , मेरे जीजा तेरे चरणों में।

कुछ श्वेत पत्र जीवन में भी-जीवन को रसासिक्त करते ,
आगंतुक सब चेहरे-मोहरे , मेरे जीजा तेरे चरणों में।

जो भी बीता सब अच्छा था , शिकवे की बहारें कभी न हों ,
सच्चा जीवन आगे भी हो , मेरे जीजा तेरे चरणों में।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Friday, July 7, 2017

गीत गाता हूँ ,तुम मुस्कराती रहो


गीत गाता हूँ ,तुम मुस्कराती रहो ,
भाई-बहनों का प्रेम, बढाती रहो।
जो तुम्हारी हुईं दुहिता -तुम तो ऐ ,
उनको आशीर्वचन से लुभाती रहो।

कौन कब है यहां ,कौन जाता कहाँ ,
सुख के सागर में गोता लगाती रहो।
वो मिले तुमको-उनको ही चंदा समझ ,
सुख की सुन्दर बयारें चलाती रहो।

आज वो है बेला-तुमको कहता हूँ मैं ,
ज़िंदगी में अमर प्रेम गाती रहो।
सुख की बगिया खिले-प्रेम-ही-प्रेम हो ,
प्रेम के ही चमन में नहाती रहो।

बाल बच्चे , जो नाती 'औ' पोता हुए ,
तेरे आँचल में सारे पगे हैं , बढ़े।
जमाताओं को खुश कर-सदा प्रेम दो ,
सारे मायके वालों को मिलाती रहो।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Thursday, June 22, 2017

कृषक

poem by Umesh chandra srivastava 


                       <1>

हे कृषक तुम्हारा पूजन कर ,
श्रद्धा के पुष्प चढ़ाएंगे।
सत्ता के लोलुप सारे तो ,
तेरी आहाट पहचानेंगे।
निर्भीक रहो ,तुम मौन नहीं ,
निज हक़ के खातिर डट जाओ।
ये धुनी रमाये बैठे जो -
उनको ललकारो ,फटकारो।
सत्ता के सारे बनिया ये ,
तेरे चरणों में झुकेंगे।
बस अपनी ताकत ,
गौरव तुम -
इनको दिखलाओ ,
जहाँ भी हों।
माना जीवन तो अन्नो बल ,
चलता है ,चलता जाएगा।
तुम अन्न देवता वसुधा के ,
तुमको नतमस्तक है प्रणाम।

                       <2>

बिखरे तुम रहते -आये हो,
यह लोकतंत्र है जानो तुम !
बच्चा भी जब चिल्लाता है ,
तब माँ देती है दूध उसे।
तुम भी गर्जन-तर्जन करके ,
अपने अधिकार को मांगों तो।
ये भयाक्रान्त सत्ता धारी ,
भय खाएंगे 'औ' देंगे तुम्हें।
बस हक़ के खातिर डटे रहो ,
ये बात तुम्हारी मानेंगे।
          तुम अन्न देवता वसुधा के ,
          तुमको नतमस्तक है प्रणाम।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Monday, June 19, 2017

राम का काव्य सुन्दर, सुहावन यहां



राम का काव्य सुन्दर, सुहावन यहां ,
राम तो हैं रमें ,राममय है जहाँ।
सीता सुन्दर ,लखन भ्रात अद्भुत यहां ,
शत्रुघन की कला , प्रेम अद्भुत रहा।
'औ' भरत की तो बातें न पूछो कभी ,
वह हैं द्रष्टा उन्होंने रचा राम मय।
     राम का काव्य सुन्दर, सुहावन यहां।

वाह रे! दशरथ ,कौशल्या ,सुमित्रा यहाँ ,
कैकेई की कला राम ने खूब कही।
उनको माता की श्रेष्ठतम उपाधि दयी ,
राम ही हैं रमे राममय है जहां।
उनका कर्त्तव्य कितना ही सुन्दर रहा ,
बाल्मीकी ने राम को मानव कहा।
तुलसी बाबा ने उनको है ब्रह्म रचा ,
श्रेष्ठ हैं मैथिलि जिनकी साकेत है।
उसमें उर्मिल 'औ' लक्ष्मण का अद्भुत मिला,
उस बहाने उन्होंने रचा ग्रंथ यह।
राम का काव्य सुन्दर, सुहावन यहां।






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Friday, June 16, 2017

शीघ्र आ जाओ प्रिये

poem by Umesh chandra srivqastava 

शीघ्र आ जाओ प्रिये,
स्वागत तुम्हारा हम करें। 
ह्रदय स्थल में जो व्यापित ,
ताप को कुछ काम करें। 

वैसे फुर्सत कहाँ तुमको ,
काम की धुन में रमें। 
तेरे आने से मनों का,
भाव का पुट कम करें। 

तुम तो आते ही , ठहरते ,
हो कहाँ -इस वृष्टि में। 
दृष्टि से अवलोक करके ,
फुर्र हो जाते भले। 

पर समय जो तेरे आने से ,
हुआ निमग्न जो। 
उसको रूपों में बसाकर ,
आस की  डोरी धरें । 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivqastava 

Friday, June 2, 2017

बढ़ो धरा के अमर सपूतों-1

poem by Umesh chandra srivastava 

बढ़ो धरा के अमर सपूतों ,
युग फिर तुमसे मांगे है। 
भ्रष्ट तंत्र जो व्याप्त हुआ है ,
उसको तुम्हें हटाना है। 

कुर्सी पर बैठे जो बंधू ,
देश का सौदा करते हैं। 
अपने हित की बात वो करते ,
जनता को बहकाते हैं। 

बन जायेगा राम जो मंदिर ,
राम राज्य क्या आएगा !
रामायण घर-घर में वाचन ,
पर परिवर्तन आया क्या ?

वह जो मानस बने प्रवक्ता ,
उनको भी मुद्दा चहिये। 
कहिये बात सत्य नहीं है !
वह भी तो हैं रंगे हुए। (जारी कल )



 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, June 1, 2017

मैं हूँ

poem by Umesh chandra srivastava

जब हमारे पास,
कुछ भी नहीं था ,
तब तुम थे।

आज हमारे पास ,
सब कुछ है ,
पर तुम नहीं हो।
बस यादें हैं ,
धड़कन है ,
और मैं हूँ।

मुझे याद है ,
जब तुम सोते में ,
मुझे जगा देते।
और अपने बाँहों का ,
फूलहार डाल,
मुझसे बतियाते ,
पुचकारते ,दुलारते ,
और प्यार करते।
कितना अच्छा लगता।
पर आज कहाँ रहा ,
वह सब।
जो तुम्हारे होने से ,
होता था।

अब कहाँ रही ,
वह प्रेम की टीस ,
जो तुम्हारे होने से ,
खिल उठता था।
अब तो पतझड़ है ,
अंगड़ाई है ,
देहं है ,
और मैं हूँ।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -










Saturday, May 27, 2017

आकृति

poem by Umesh chandra srivastava 

सीलन  भरी दीवारों में ,
आज भी -
वह आकृति है।
जो तुमने ,
कीलों की नोक से -
बनाया था।
आज भी वह ,
भावों की आकृति ,
प्रतिक्षण ,प्रतिपल -
बदलते-बदलते ,
दृष्टि से दिखती है।
कभी राम नज़र आते हैं ,
तो कभी श्याम ,
तो कभी घनश्याम।
यह आकृति भी खूब है ,
भावों के प्रसांगिक ,
सोपान के लिए।






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, May 25, 2017

मौन भी अभिव्यंजना है -2

poem by Umesh chandra srivastava

                                      मौन भी अभिव्यंजना है ,
                                      शब्द वहं पर कहाँ ठहरे। 

मौन देखो वह पड़ी थी ,
मौन में देहों की भाषा,
अर्थ को विस्तार देती। 

अर्थमय संकेत सारे ,
मौनता से आ पड़े हैं। 
वह देखो-नन्हा वह बच्चा ,
मौनता से मांगता है ,
माँ समझ जाती-उसे अब ,
चाहिए क्या -यह सम्भाषण। 

मौनता के बल से देखो ,
सृष्टि का विस्तार होता। 
मौन ही प्रकृति हमारी ,
मौन रह कर कह रही है। 
दूर गगनों में सितारे ,
मौनता के बल हैं सुन्दर। 

चन्द्रमा का शोभ शीतल ,
मौनता का कुशल वक्ता। 
मौनता का क्षण निराला। 
मौनता का बल निराला। 
मौनता का छल निराला।

मौनता अर्पण में सुन्दर ,
मौनता की वृष्टि सारी। 
शब्द तो अखरन हैं देते ,
मौनता सब ही बुनावट ,
सदा कौशल से है करता। 

            मौन भी अभिव्यंजना है ,
          शब्द वहं पर कहाँ ठहरे। 





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, May 24, 2017

उद्धार की खातिर

poem by Umesh chandra srivastava

तुम्हारे कहने से-
मैं रुकी थी।
वरना मैं कितना ,
थक के चूर थी।
पर तुम कहाँ - मानने वाले ,
भरकर किसी बन्दूक की तरह ,
तड़ा-तड़ चला रहे थे गोली।
पर, मैं कुछ बोली।
नहीं न ,वह तुम्हारा अधिकार था !
मगर मेरे अधिकार के खातिर ,
क्यों बौने हो जाते हो तुम!
क्यों दुहाई देने लगते हो तुम !
धर्म शास्त्र की बातों में बहका कर ,
सदियों से तुम लोगों ने -
नारी का कहाँ सम्मान किया।
देख लो-रमायण उठा कर ,
अहिल्या को।
क्या दोष था उसका ?
छला था तो उसे इंद्र ने ,
लकिन शापित हुई वह।
बिन अपराध के ,
अपराधिनी बनी वह।
और त्रेता युग तक ठहरी ,
अपने उद्धार की खातिर।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, May 23, 2017

मौन भी अभिव्यंजना है

poem by Umesh chyandra srivastava

मौन भी अभिव्यंजना है ,
शब्द यहं पर कहाँ ठहरे।
पर बताओ अर्थ में विस्तार ,
कितना ही सुखद है।

बात सब ही बोलते हैं ,
मौन, सम्भाषण नहीं।
पर बताओ अर्थ में ,
अड़चन कहाँ पर है यहाँ।

वह खड़ी अपलक देखो-
भीग के कुछ प्रेम रस में।
या विरह के कुछ अनोखे ,
संयोग की इच्छा को आतुर।

मौन उसका बोलता है ,
शब्द में बातें कहाँ यह।
मौन ही साधक रहा है ,
गौर से देखो अगर तुम।

सर्जना के क्षण में देखो -
मौन का कितना ही रस है।
मौनता के बल पे बंधू ,
सृष्टि का विस्तार समझो।

आनंद के अनमोल क्षण में ,
मौन से बढ़िया क्या भाषण ?
मौन होकर ले लिया है ,
रससिक्ति का पहर वह।
         मौन भी अभिव्यंजना है ,
         शब्द यहं पर कहाँ ठहरे।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chyandra srivastava 

Monday, May 22, 2017

सखी री, श्याम करे बरजोरी

poem by Umesh chandra srivastava

 सखी री, श्याम करे बरजोरी।
         गउवा लैके ,जब-जब जावत,
         देखत मोको-खूब खिझावत।
         लै चलती जब पानी गागर,
         राह में चेका बहुत चलावत।
         सुबह पहर जब बाहर निकलूं ,
         देख करत वह खीस निपोरी।
                सखी री, श्याम करे बरजोरी।

दिवस पहर वह बंशी तट पर ,
सब सखियाँ को खूब रिझावत।
मधुर-मधुर बंशी वह टेरत ,
मन बरबस निज ओर झकोरत।
ताल-तलैया सब हलचल में ,
पशु-पक्षी भी इत-उत डोलत।
सब कुछ करत बहुत निक लागत,
पर वह जो भी करत ठिठोरी।
           सखी री, श्याम करे बरजोरी।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Sunday, May 21, 2017

तुम्हें चाँद कहूँ या सूरज

poem by Umesh chandra srivastava

तुम्हें चाँद कहूँ या सूरज ,
तारा का नाम जो दे दूँ।
तुम ध्रुव तारा सा बनना ,
जो अडिग रहा जीवन भर।

जीवन के मोल को समझो ,
जीवन का खोल यही है।
जीवन में गर कुछ करना ,
तो अडिग रहो बातों पर।

जीवन का मोल सुखद है ,
जीवन से सब कुछ मिलता।
मत कोई संकुचन करना ,
जीवन पथ आगे बढ़ना।

उतना तो सरल नहीं है ,
बाधाएं अगणित इसमें।
पर उसे सम्भालो संयम ,
जीवन तो सुखद रहेगा।

पथ कंटक सारे जो हैं ,
वह अपने आप छटेंगे।
जीवन तो धार कटारी ,
पर अडिग तुम आगे बढ़ना।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, May 18, 2017

दो बिम्ब

poem by Umesh chandra srivastava

                             (१)
कमल नयन ,सुरभित किरण ,प्रतिदिन होता प्रात।
जल-कल पर बिम्बित हुआ ,प्रकृति का अनुपात।
जल लेकर कमली चली ,सुदृढ़ बदन चितचोर।
आओ मिल सब देखलें ,इसका सुन्दर स्रोत।

                             (२)
आते मन भाव में ,अकुलाहट चुपचाप।
धीरे-धीरे  शब्द का-बनता है परताप।
बिम्ब गढ़े क्या जायेंगे ,खुद ही करेंगे बात।
ऐसे में तन बेसुधा ,रचने लगा सुलाप।




उमेश चंद्र श्रीवस्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, May 13, 2017

चाँद चांदनी

poem by Umesh chandra srivastava 


चाँद चांदनी को,
देख रहे हो।
तुमसे ही है ,
पर न जाने क्यों ,
तुमसे अधिक खिला है। 
मिलन की मधुरतम बेला में ,
तुम्हारे आगोश में ,
समाहित होने के लिए। 
लगता है-आज वह ,
बेचैन है। 
तुम खामोश सिकुड़ते जा रहे हो,
ज़रा देखो तो सही ,
चांदनी की व्यथा ,
समझो तो सही। 
क्यों मौन हो ?
बोलो - कुछ तो बोलो ,
अपने मुख ललाट की ,
वह अप्रतिम छवि ,
आज कुछ तो खोलो ,
 कुछ तो खोलो। 





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 



Friday, May 12, 2017

ओ पाखी ,पाखी

poem by Umesh chandra srivastava

नयन तुम्हारे बेमिसाल ,ओ पाखी ,पाखी।
इसमें मिले है खुमार ,ओ पाखी ,पाखी।
नयनों का विचित्र है भाव,ओ पाखी ,पाखी।
इसमें ममता ,दुलार ,ओ पाखी ,पाखी।
इसमें है प्रेम-इज़हार ,ओ पाखी ,पाखी।
खोये-खोये क्यों हैं आज ,ओ पाखी ,पाखी।
कुछ तो करो ऐतबार ,ओ पाखी ,पाखी।
कहाँ गयी तुम गुलज़ार ,ओ पाखी ,पाखी।






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, May 11, 2017

आज पाती आ गयी

poem by Umesh chandra srivastava


आज पाती आ गयी -उसमें लिखा।
चल पड़ो उस ओर-तुमने क्या किया ?
सब वसूलों का यहाँ हिसाब दो।
उस नियंता के समक्ष सुविचार दो।
पूछेगा-जीवन में तुमने क्या किया ?
कितनों को सन्मार्ग तुमने है दिया।
तब बताओ क्या कहोगे तुम भला।
इसलिए सुविचार जीवन की कला।
और इसमें ही रमों आगे बढ़ो।
सब मिलेगा जिस लिए जीवन मिला।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, May 5, 2017

माँ का रूप तो चंदा-सूरज

poem by Umesh chandra srivastava 

माँ का रूप तो चंदा-सूरज , 
माँ की गोद तो धरती है।
माँ का प्रेम गगन सा ऊँचा ,
माँ की सोच पातालपुरी। 
माँ का दूध अमर अमृत है ,
माँ की गोद बसंत ऋतु। 
माँ का दर्पण मुख-खुब सुन्दर-
उसमें जो चाहो देखो। 
माँ का प्रेम दुलार हमेशा-
बच्चों में स्फूर्ति भरे। 
माँ के चलते बच्चा बढ़ता-
जग में नाम करे रोशन।
माँ ही तो वह समय-वमय है ,
बच्चों की हितकारक माँ। 
माँ से ही सब सपने खिलते,
माँ से ही सब रीति-रिवाज। 
माँ बिन जग में कुछ भी नहीं है,
माँ ही जीवन का सरगम।
माँ तो गीत-संगीत वही है ,
माँ ही कविता की पतवार। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, May 2, 2017

तुमको तो क्या कहें हम



तुमको तो क्या कहें हम ,
तुम बेहिसाब हो।
रातों को जागते हो ,
दिन में विराम है।
संतों की यही बाणी,
भोर में राम है।
रातों के गहरुएपन ,
कि क्या मिसाल है।
तुमने तो पढ़ा गीता -
न कोई किताब को।
बस धुन में जीते अपने ,
तुम क्या हिसाब हो ?
गैरों पे करम करते ,
अपनों को त्याग तुम।
लाइक में रात होते ,
गैरों से बात खूब।
अपनों से मुँह छिपाते ,
तुम्हें क्या मिसाल दें।
क्या इस तरह से जीवन ,
संगत में बनेगा।
क्या होगा अब तुम्हारा ,
तुम तो तबाब हो।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Monday, May 1, 2017

तीन बिम्ब

poem by Umesh chandra srivastava

                              [१]
ज़रा लब को तो खोलो ,प्यार से दो बात कर लो तुम।
पुरानी रंजिशों को छोड़ ,कुछ सौगात कर लो तुम।
नहीं तुम हमसे मत बोलो-ज़रा इस ओर तो देखो।
सुनाई देगा जीवन में ,वही किस्सा पुराना है।
                           
                              [२]
अगर में 'औ' मगर में ,ज़िंदगी को क्यों गंवाते हो।
चलेंगे साथ का दावा ,ज़रा पैबंद तो खोलो।
ज़रा सी आँधियों में तुम यू हीं सिमटे ,हो रूठे हो।
ये जीवन कंटकों का जाल इसको पार कर लो तुम।

                              [३]
दवा का क्या असर होता ,तुम तो डाक्टर ठहरे।
अगर नासूर हो जाए ,बताओ क्या करें तब हम।
फ़क़त एक बात को बांधे हुए तुम रूठ के बैठे।
इशारों में अगर समझो तुम्हीं तो यार हो अपने।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Sunday, April 30, 2017

मैं हूँ पाखी ,समझ रहे हो क्या

poem by Umesh chandra srivastava

मैं हूँ पाखी ,समझ रहे हो क्या ,
तुम तो भंवर-पतिंगा हो।
मत मँडराओ पास हमारे ,
जल-बर कर रह जाओगे।
मैं तो दीप हूँ ,
मेरे लौ से दूर रहो।
तुम  तो ठहरे दीवाने ,
डोल-डोल बस घूर रहे।
काम-वाम है कोई नहीं क्या ?
हर दम आके डट  जाते हो।
राहो में मेरे झुरमुट सा ,
आकर बस तुम , बस ,बस जाते हो।
मैं क्या कोई छुई-मुई हूँ ,
जो तेरी आहट से सूख जाऊं।
अपनी दृष्टि क्या रखते ?
देख-देख क्या पा जाओगे !
भंवर पतिंगे सा जीवन ,
क्यों अपनाना चाहते हो।
मन में कोई और भाव नहीं है क्या ?
एक भाव से हरदम चुस्त।
फौलादी हो ,कुछ करो ,
देश हित में कुछ बरो।
दूजी दुनिया की यह रंगत ,
स्वयं पास आ जायेगी।
फिर तुम देखो-जी भर के ,
दृष्टि पसारो-परस करो।
नेक दृष्टि रख आगे बढ़ो तुम ,
तुम पर यही भाव मेरा।
छोड़ो पीछा ,जाओ हट कर ,
सही मार्ग कुछ अपनाओ।
अपना भी हित कुछ कर लो तुम ,
और देश-समाज का भी।
 वरना तुम जाओगे वहां ,
'पास्को' लगेगा ऊपर से ,
रगड़- रगड़ खप जाओगे।
         मैं हूँ पाखी ,समझ रहे हो क्या।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, April 29, 2017

राम की शक्ति माता तुम्हीं तो बनी

poem by Umesh chandra srivastava

राम की शक्ति माता तुम्हीं तो बनी ,
राम असहज हुए तो पुकारा तुम्हें। 

राक्षसों की तो माया बिकट थी बिकट ,
तेरे चरणों से उनका ही मर्दन हुआ। 

तेरे नामों का सुमिरन ,मनन जो करे ,
फिर वह जग में रहे मुक्त प्राणी तरह। 

कोई झंझट व संकट में वो न पड़े ,
माँ तू ही है सुखों की अमर रागनी। 

तेरा दर्शन 'औ' पर्शन सभी चाहते ,
माँ जगत की तू ही है तो शक्ति घनी। 

तेरे आँचल में जन-मन सुखी से रहें ,
राम की तू आराधन तुम्हें पूजते। 



 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Friday, April 28, 2017

सोचता हूँ

poem by Umesh chandra srivastava

सोचता हूँ ,सबको ले के चलूँ ,
घर ,परिवार ,साथी-संघाती सबको।
पर  फिर  ठिठक जाता हूँ ,
सबकी-अपनी सोच ,
अपना दायरा ,
अपना अनुभव ,
बातें तो वह -उसी हिसाब से करेंगे ,
मेरे मन को भाये ,
न भाये -ऐसे में ,
मैं सोचता हूँ ,
अपने विचार को मानूँ।
लेकिन लहू का संस्कार ,
क्या इसकी इज़ाज़त देगा ?
देगा -सोचता हूँ ,
ज़रूर देगा ,
मगर थोड़ा विद्रोही होने पर।
आखिर यही तो ,
किया भारतेन्दु जी ने।
भाई ने हिस्सा बटा लिया।
सोचिये -उनसा ,
उनसा संकल्पित होइए ,
तब बनेगी बात सब।
तब रच पाएंगे ,
साहित्य का नया वितान।
तब आप भी ललकारें !
शपथ लें ,मुकरें नहीं ,
अडिग रहें -साहसी योद्धा की तरह।
क्योंकि -साहसी योद्धा ही ,
बनाता है ,
संवारता है ,
प्रेरणा देता है।
संकल्प कीजिये ,
तो आ जाइये ,
संकल्प लें, और ,
चल पड़ें ,
उसी राह पर ,
जहां अपनी ज़मीन हो ,
अपना आसमान हो ,
और सिर्फ ,
अपने सपनों की हक़ीक़त हो।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, April 27, 2017

तुमसे नयन लड़ी जो प्रियतम

poem by Umesh chandra srivastava 

तुमसे नयन लड़ी जो प्रियतम ,
नयनों में मधुमास हुआ। 

इधर-उधर अब मत भटकाओ ,
अबतो कुछ अहसास हुआ। 

नहीं पता था प्रियतम तेरे ,
नयनों में इतना रास है। 

बाग़ -बाग़  सब उपवन हो गए ,
उहा-पोह में साँस हुआ। 

कहो बताओ किधर चले हम ,
पंथ यहाँ से जाते अनेक। 

किस पथ पर हम चलें बताओ ,
मन एकदम संत्रास हुआ। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, April 25, 2017

बड़ी खूबसूरत हैं आँखें तुम्हारी

poem by Umesh chandra srivastava

बड़ी खूबसूरत हैं आँखें तुम्हारी ,
जहां भर की दिखती है इशरत इसी में। 
निगाहों का पैना वह पन है सुहाना ,
गिराकर ,उठाकर हो करती दीवाना। 
ज़रा होश में तो  रहो मेरी जाना ,
नहीं हमको करना मदहोशी ज़माना। 
बड़े तो सितमगर यहाँ लोग बैठे ,
नहीं कुछ मिलेगा तो तोहमत लगाना। 
मुझे फ़िक्र तेरी तुझे खुद की न हो ,
मगर मैंने जाना यह ज़ालिम ज़माना। 
कहाँ यह बना दे , कहाँ यह दिखा दे ,
तुम्हें भी तो रुसवा ये शूली चढ़ा दे। 
नहीं इसको भाता युगल प्रेम कोई ,
कहाँ इसको फुर्सत ये समझे तुम्हें भी। 
इसे बस ये आता नहीं है रहम भी ,
यह फरमान देकर करेगा बेगाना। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Monday, April 24, 2017

हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,

poem by Umesh chandra srivastava

हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,
विचरण करते रहते।
क्या-क्या देखा नहीं यहां पर ,
विधि का  लेखा सब  कुछ है।

दूर गगन में अंशुमाली ,
धरती पर उजियारी है।
हवा बहे सुन्दर से सुन्दर ,
मौसम में गुलज़ारी है।

अटखेली में बाल-बृंद सब ,
तरुण-अरुण सा डोल रहे।
तरुणाई तो भ्रम ही नहीं है ,
इसमें जो कुछ जोड़ सको।

समझो जीवन का दर्पण यह ,
संकल्पित हो आगे बढ़ो।
गर तुम चुके गरमाई में ,
नयनों के दीदारों में।
सब कुछ चौपट हो जाएगा ,
अरुणित जीवन तब क्या हो ?

जो तुम शब्द चितरक बनके ,
शब्दों के अर्थों में घुल।
मर्मों के सब अर्थ समझ के ,
वैचरिक दृष्टि धरके ,
आओगे तो लोग यहाँ पे ,
चरण बृंद सब चूमेंगे।
          हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,
          विचरण करते रहते।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Sunday, April 23, 2017

तुम पर आस लगाए हैं - 2

poem by Umesh chandra srivastava

अब तो सुनवाई है होनी ,
क्यों भृकुटी है तनी हुई।


न्याय व्यवस्था को क्या कहना ,
न्याय व्यवस्था न्यायमयी।
यही देखना है बस आगे ,
क्या निर्णय ,क्या बात हुई।
वैसे तो यह मैटर ठहरा ,
इसपर लिखना दूभर है।
पर सत्य बताना वाजिब ,
सत्य आवरण में खिलता।
सत्यों का अनमोल जगत यह ,
यहां सत्य है सत्यासत्य।
मगर रौशनी में जो दिखता ,
उसमें कुछ परछाईं है।
परछन का यह दौर पुराना ,
परछन जग की थाती है।
इसीलिए इस पर  कुछ कहना ,
परछन का प्रतिघाती है।
लो अब समझो तुम तो ठहरे ,
भावों के खेलन-मेलन।
तुमसे कुछ भी कहना सुनना ,
भावों का भावातुर है।
कुशल चितेरक तुम भावों के ,
भाव-भावना से खेलो।
हम सब सारा सब कुछ सह के ,
तुम पर आस लगाए हैं।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...