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Thursday, June 28, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -20

A poem of Umesh chandra srivastava


मनु श्रद्धा हों , चाहे जो भी ,
आकर्षण से खिचे रहे।
तभी तो सृष्टि का कुसुमित पल ,
सहसा फिर से शुरू हुआ।

याद मुझे है प्रकृति तुम्हारा,
मोह रहा विपरीति लिंग।
परबस , प्रतिक्षण अर्पण करने -
को आतुर तुम सहज रहे।

अरे! उर्बी तुमको वह पल ,
याद रहा होगा , हर्षित हूँ।
तेरे ही कपोल सुंदरता का ,
मैं मोहित तब से ही रहा।

न जाने कब से तुम उर्बी ,
तरुणी जैसी बनी हुई।
मैं बिहसा , टूटा रहता था ,
तब भी तुम समभाव रही।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, June 26, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -19

A poem of Umesh chandra srivastava


पर क्या उर्बी वह भोला तो ,
जीवन में पाना चाहता। 
शॉर्टकट में सबकुछ चाहिए ,
इसीलिए वह ठग जाता। 

उसमें नारी प्रेम है इतना ,
नारी के प्रति असीम लगाव। 
इसी के चलते निज भावों को  ,
नहीं संतुलित रख पता।

वह तो प्रकृति तुम्हारे जैसा ,
पल-पल हमे सताता है।
जल प्रपात हो , झंझा चाहे ,
सब तो मैं ही शती हूँ।

याद करो प्रकृति , प्रलय का ,
भीषण गहराया पल था।
सभी जीव-जंतु नष्ट हुए थे ,
तब भी मैं संतुलित रही।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, June 13, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -18

A poem of Umesh chandra srivastava


गर-वह प्रकृति तुम्हारे जैसा ,
निज जीवन व्यवहार करे।
तब तो दुःख की रजनी उसको ,
कभी नहीं आगोश में ले।

वह संतुलित नहीं रह पाता ,
चाहे जो भी कारण हो।
पल-पल में वह नयन दृगों से ,
बह्ताया रहता स्रोता।

उस अकिंचन पर दृण , करुणा ,
पर वह विचलित भी होता।
पल-पल में संतुलित भी होता ,
पल-पल में हँसता-रोता।

गर वह अपने निज भावों से ,
अपने को संतुलित करे।
उसके जैसा कोई प्राणी ,
जग में दूजा न होगा।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, June 10, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -17

A poem of Umesh Chandra Srivastava


उसके भाव सरल होते हैं ,
स्मृतियाँ भी समतल हैं।
कहाँ हवा में उड़ आता वह ,
भावों का अटखेलक वह।

उसे भाव में बहने दो सखि ,
वह भावों का कुशल चितेरक।
किस्सा-विस्सा बुनने दो बस ,
कहने दो 'औ' लिखने दो।

उसकी दृष्टि अनोखी अद्भुत ,
बहुत सी बातें कह-सुनता।
जो भी हम जाने 'औ' समझें ,
उससे पूर्व वह लिख देता।

सुंदरता की दृष्टि प्रबल है ,
सुंदरता की वह प्रतिमूर्ति।
क्यों न हो ऐसा वह प्यारे ,
वह हम दोनों की संतति है। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Friday, June 8, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -16

A poem of Umesh  Chandra Srivastava



विश्लेषण करना हो , चाहो-
अलग-अलग सब कर लो भी।
मगर सत्य है हम दोनों ही ,
दोनों में समरूप रहे।

मैं उर्बी हूँ , तुम प्रकृति हो ,
मैं नारी , तुम पुरुष रहो।
तेरा मेरा मिलना होता ,
जगती को सुख देने को।

नाहक लोग प्रपंची होते ,
कहते-रहते है सुख-दुःख।
हम दोनों सहते यह सब हैं ,
पर कहते क्या , चुप रहते ?

सखे मनुज है दुर्बल प्राणी ,
जरा-जरा में हंस रोता।
जीवन की सारी संगतियाँ ,
कहाँ-कहाँ वह नहीं ढोता।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, June 6, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -15

A poem of Umesh chandra srivastava


उसको क्या-क्या बात कहूँ मैं ,
जिसने तेरा सृजन किया।
जीवन का अनमोल रहस्य तू ,
सदा-सदा तू तरुणी लगती।

बहुत हो गया मेरा वर्णन ,
तुमसे प्यारे ही हम हैं।
गर तुम रहे तभी तो-
मेरा जीवन-जीवन है।

तुमसे ही तो हरियाली है ,
तुमसे ही खिलना मेरा।
बिन तेरे हम कुछ भी नहीं हैं ,
तुमसे ही होना मेरा।

तेरा अर्पण , तेरा समर्पण  ,
जबसे हम तुम बने हुए।
मैं तुझमें हूँ , तू मुझमे है ,
प्यारे हम दो एक ही हैं।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव  -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, June 2, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -14

A poem of Umesh chandra srivastava 

तू वसुधा अनमोल रतन है ,
देवों का तू गर्वित क्षण। 
वार-वार सब कुछ तेरे में ,
तेरा स्वागत प्रतिपल प्रतिक्षण। 

स्नेहिल , पुष्पित , हर्षित हो ,
नित्य तुम्हारा रूप निखरता। 
अन्दर बाहर दोनों सुन्दर ,
क्या उपमा , सब उपमा विगलित। 

रोज तुम्हारा दर्शन-वर्शन ,
खिली-खिली मोहक लगती। 
पानी , आंधी , तूफां सहकर ,
सुखद सलोनी फिर भी लगती। 

नारी रूप बड़ा मोहक है ,
नर सब देख रसिक बस होते। 
टक-टक देखें , नख-सिख तब तक ,
जब टक दृष्टि नहीं थकती। 




उमेश चन्द्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, June 1, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -13


A Poem of Umesh chandra srivastava 


कौन पुरुष है , कौन है नारी ,
यह सब भाव जगत का भेद। 
पूरी संतति हम दोनों की ,
हम दोनों उत्सर्जक हैं। 

भाव तुम्हारा सुखद , सलोना ,
उर्बी तू ममता की छाँव। 
तेरे बिन जग लोग अधूरे ,
माता का वर्चस्व बड़ा। 

मात तुम्हीं हो इस जग भर की ,
मल , मूत्र सब कूड़ा करकट। 
हुए समेटे निज बाहों में ,
फिर भी है पुचकार वही। 

धन्य तुम्हारा मात समर्पण ,
जग भर का सब कुछ है अर्पण। 
फिर भी शब्द नहीं हैं तेरा ,
कैसे-कितना वर्णन कर दूं। 



उमेश चन्द्र श्रीवास्तव-
  A Poem of Umesh chandra srivastava 

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