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Friday, August 31, 2018

तुम साँझ पहर

A poem of Umesh chandra srivastava

तुम साँझ पहर
चुपके-चुपके
कुछ वस्त्र आदि
हल्के-फुल्के
कुछ अधर
नयन छलके-छलके
अतिरेक पवन का झोंका बन
बन फूल कमल
तुम आ जाना।
नाज़ुक सी नरम कलाई में
चूड़ी खनके , पायल बाजे
सब मदमाती अवगुंठन से
तुम निशा भवन में आ जाना।
तब देखो-कैसे प्रेम पुलक
सरसायेगा इस मौसम में
रुनझुन सारा , तन-मन होगा
आलोक शान्त का फैलेगा
दोनों प्राणी के सुख-दुःख कट
आनंदमयी वह क्षण होगा।
तुम साँझ पहर
चुपके-चुपके।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, August 30, 2018

प्रथम-प्रथम ( भाग २ )

A poem of Umesh chandra srivastava

(३)
मध्य रात्रि के बाद ,
उसके-उसकी तन्द्रा टूटी ,
वह कुछ होश में आया।
फटी आँखों से ,
उसने -उसे देखा ,
उठाया और ज़मीन से ,
बिस्तर पर लाया।
फिर क्या था ,
जब तक बातें और बढ़तीं ,
कि बाहर से ,
चिड़ियों की चहचहाहट ,
शोर गुल ,
प्रभात बेला में  गया।

(४)
खुले कमरे में ,
परिहास का दौर शुरू।
अचकचाई-सपकपाई ,
वह क्या कहे ?
अरमानों के गुलदस्ते का ,
कौन सा बंद खोले ?
क्या बोले-क्या तौले ?
वह रही खामोश ,
और दौर वह ,
एकतरफा ,
ठिठौली का चलता दौर।
जैसे बीती रात ,
एकतरफा दौर चला।
और दोनों ,
नींद की आगोश में ,
समाये-
अरमानों की गठरी में ,
लुकाए पड़े रहे।

(५)
रंगीन सपने का ,
वह प्रथम पहर ,
अब न आने वाला।
वैसे तो रिश्ते बनेंगे ,
ज़रूर आगे।
लेकिन वह उन्मेष ,
वह उत्तेजना ,
वह दर्पण ,
कहाँ बन पायेगा।
स्वप्न की गठरी ,
ठूठ की ठूठ ,
बंधी रह जायेगी ,
और पूरा जीवन कट जाएगा।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, August 27, 2018

प्रथम-प्रथम (भाग १ )

A poem of Umesh chandra srivastava

१. 
रंगीन सपनों का गुलदस्ता सजाये ,
बैठी वह , कि तभी ,
प्रथम रात्रि के ,
प्रथम मिलन की बेल आ गयी।
वह अकपकाई ।
उठी-और औचक खड़ी हो गयी।
कि तभी उसने देखा-उसका वह ,
लड़खड़ाता बिस्तर पर गिरा ,
फिर सो गया।
उसे लगा की उसका वह प्रथम गुलदस्ता ,
भरभरा गया। 


२.
घने रात के सन्नाटे में ,
वह भी चुपचाप ,
लाइट बुझा सो गयी ,
कि जैसे उसके -
अरमान की गांठें ,
बिन खुले ही ,
कस दी गयी हो। (शेष कल )







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Saturday, August 25, 2018

राखी भाई बहन का प्यार

A poem of Umesh chandra srivastava


राखी भाई बहन का प्यार ,
हाथ कलाई राखी बंधन ,
सुन्दर यह व्यवहार ,
        राखी भाई बहन का प्यार।

इस अटूट बंधन को माने ,
जाने जग संसार।
        राखी भाई बहन का प्यार ,

बहना ने बहाई को बंधा ,
स्नेह  , दुलार , व्यवहार।
       राखी भाई बहन का प्यार।
एक धागे से है संयोजन ,
इसका बहुत बड़ा आयोजन  ,
जीवन भर चलता यह प्रयोजन ,
सुन्दर सुखद सुदृण इकरार ,
       राखी भाई बहन का प्यार।

इस बंधन से मौसम सुधरे ,
सारे भाव मुखर हों उभरे ,
सदियों से यह चलता आया ,
 मधुर सलोना यह संसार।
       राखी भाई बहन का प्यार।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, August 24, 2018

वतन के वासते

A poem of Umesh chandra srivastava

वतन का तन ,
यह तन 'औ' मन ,
वतन के वासते ।

वतन मेरा ,
नयन मेरा ,
यह सारे रास्ते
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।
हम मुस्कुराएं तो वतन ,
हम जीत जाएँ तो वतन ,
हमारे सारे हो जतन।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।
हुआ जनम वतन लिए ,
गगन , मही वतन लिए ,
नाल , नदी 'औ' शिखर।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।
ना कोई अंध बात हो ,
सभी ही जाति साथ हो ,
सभी बने , सभी तने।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते। 
तिरंगा हिन्द शान हो ,
जयघोष अमरगान हो ,
सपूत सारे जो डटे।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।
जय हिन्द , जय हिन्द  , जय हिन्द ,
यही हमारे शब्द हों ,
मगन नयन-नयन।
             वतन के वासते ।
             वतन के वासते ।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Wednesday, August 22, 2018

मृत्यु आये तो तरसकर

A poem of Umesh chandra srivastava

मृत्यु आये तो तरसकर ,
मुझपे न उपकार करना।
कर्म जो नर ने किया है ,
उसको ही स्वीकार करना।

यह जगत है सर्जना का ,
सृजन में सब अणु जुटे।
टूट फूटन का यहाँ पर ,
ना कोई अधिभार रखना।

वह जलज का अंश केवल ,
बुलबुला तिर ठोस बनता।
प्राण वायु के भ्रमण से ,
वह सदा अनमोल तनता।

गहन गोचर मार्ग पथ पर ,
कर्म की बेली से चढ़ना।
वरना टूटोगे तुम ऐसे ,
वेदना का रस है खलना।

यह छलाछल काल ठहरा ,
सब प्रपंची जुट गए हैं।
मोह के अविराम पल में ,
सब ससंची लुट गए हैं।

तुम यहां रसधार लेकर ,
कृष्ण की माया को देखो।
वह अकेला इस जगत में ,
राम की बातों को छोड़ो।

            कृष्ण से अनुराग करना ,
            राम पर बस बात करना।
            मृत्यु आये तो तरसकर ,
            मुझपे न उपकार करना।











उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Sunday, August 19, 2018

तू है अनंत

A poem of Umesh chandra srivastavca



तू है अनंत ,
सब दिग दिगन्त।
हर कण-कण में ,
तेरा वसंत।

सारे पर्वत ,
सारी नदियां  ,
हर रूप स्वरुप में ,
तू अनंत।

कर्मों की बेल ,
अमर तू है।
गीता-पुराण  ,
उपनिषद , ग्रथ।
तू राम-श्याम ,
तू राधा है।
कैलाश शिखर ,
कल्याण धाम ,
सब जगह ही ,
तेरा है वसंत।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
A poem of Umesh chandra srivastavca 

Saturday, August 18, 2018

घसियारिन

A poem of Umesh chandra srivastava


घसियारिन है ,
घांस छीलती।
बच्चे दौड़-दौड़ आते ,
रोते-चिल्लाते वह जी भर ,
माँ का अंचल खींच कहते -
माँ चल घर को,
भूख लगी है। 
रोटी दे , तू रोटी दे।
माँ बरबस ही ,
डांट-डंपटती ,
जा घर में रोटी रक्खी है।
पर जिद वश बच्चे तो सरे ,
माँ के पास सुबक होते।
अंत में माँ है ,
माँ की ममता ,
घास छोड़ घर जाती है ,
बच्चों को वह रोटी देकर ,
पुनः घास रम जाती है।
माँ का यह तो प्रेम निराला ,
गाओ आल्हा , गाओ गीत।
माँ से परम कौन है जग में ,
माँ जैसा सुन्दर सा मीत।
                 घसियारिन है ,
                 घांस छीलती।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, August 17, 2018

अब तो तुम तो शिखर हो गए

A poem of Umesh chandra srivastava 


राग-रंग की इस दुनिया से ,
अंग-संग की इस दुनिया से ,
नश्वर इस शारीर को त्यग कर ,
अब तो तुम तो अमर हो गए ,
अब तो तुम तो शिखर हो गए। 

पञ्चतत्व के अधम जगत से ,
स्वार्थ युक्त इस मधु मंडप से। 
सारा कारा हार त्याग कर ,
अविरल स्वर दे , मुखर हो गए। 
अब तो तुम तो शिखर हो गए। 

मुक्त कंठ से सब गाएंगे ,
विचारों का पुंज संजोंकर ,
अपनी सुक्षम धार सौंपकर ,
अब तो तुम तो सगर हो गये ,
अब तो तुम तो  शिखर हो गए। 

जग का सत्य शाश्वत है यह ,
जो आया है , वह जाएगा। 
अपनी खुद की कीर्ति पाताका ,
जो  देकर करके गया जगत से ,
उसका गान सभी गाएंगे ,
अब तुम अविरल तत्त्व हो गए। 
                 अब तो तुम अमर हो गए ,
                 अब तो तुम  शिखर हो गए। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, August 16, 2018

कवि ह्रदय अटल जी को श्रद्धांजलि

A poem of Umesh chandra sriastava

अटल तुम्हारी रीति अलग थी ,
अटल तुम्हारी प्रीती अलग |
गर अब सोचें लोग उन्हें सब ,
तो निज देश अमर होगा |

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra sriastava

इस सूने-सूने से घर में

A poem of Umesh chandra srivastava



इस सूने-सूने से घर में ,
तेरी आहट प्रतिपल रहती।
मन मसोस कर रह जाता हूँ ,
तेरी चाहत प्रतिपल रहती।


भाव-भवन में स्मृति ताज़ी ,
सावन मौसम है यह पाजी।
भादव मास रसायन देता ,
विगलन कहाँ-कहाँ हंस कहती।

बड़े चाव से रस मर्दन कर ,
बड़े भाव से चितवन हर पल।
लुभा-लुभा अब भी जाता है ,
अकुलाहट पल-पल ही रहती।

मौसम का जो ऋतु छाया है ,
नवल-नवेली चाहत हंसती।
कुम्हलाया तन-मन यह सारा ,
ज़िम्मेदारी हर पल डसती।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, August 14, 2018

एक कविता

A poem of Umesh chandra srivastava 



वह पगली ,
गगरी की तरह बैठ गयी। 
जब उसे ,
स्वतंत्रता दिवस पर ,
फहराए गए तिरंगे की ,
मिठाइयां दीं जा रहीं थीं। 
आँखों में चमक ,
बदनों में कुलबुलाहट ,
और हाथों में ,
मजबूती पन था। 
दबी-कुचली-दुत्कारी गयी ,
वह पगली ,
अब एकदम अलग थी ,
मानों वह जानती है ,
आजादी का अर्थ ,
तिरंगे का महत्व  ,
और जबकि यह सब...............!


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, August 12, 2018

सवाल पूछता हूँ

A poem of  Umesh chandra srivastava

सवाल पूछता हूँ ,
जवाब चाहिए।
बातों में न लुभाना ,
वह काम चाहिए।

कहा था तुम्ही ने ,
आयेंगे अच्छे दिन।
अब क्या हो रहा है ,
जवाब चाहिए।

बैठे वहां पर तुम ,
कहते वहां पर तुम।
चुनावों की बात का ,
हिसाब चाहिए।

बेटी पढ़ाया तुमने ,
बेटी बढ़ाया तुमने।
क्या हो रहा है अब ,
इंसाफ चाहिए।





उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
A poem of  Umesh chandra srivastava 

Saturday, August 11, 2018

तुम

A poem of Umesh chandra srivastava


तुम अक्सर लोगों को ,
ईमानदार बनने की सीख देते हो।
कहते हो , आगे बढने का ,
यह गहना है।
इसी के हद में रहना ,
अगर आगे है बढना।
पर मैं देखता हूँ कि तुम ,
तुम तो इमानदार नहीं लगते।
सरे छल-प्रपंच अपनाते हो ,
अपना कद ,अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए।
तुम तो झूठ भी ,
बड़े धड़ल्ले से बोलते हो।
और दूसरे से कहते-फिरते हो।
ईमानदार बनो ,
सत्य बोलो  ,
आपस में प्रेम करो।
आखिर ऐसा क्यों करते हो तुम ,
क्या प्रगतिशीलता का ,
आज के समय में ,
यही है मायने !





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, August 5, 2018

तुम्हारी कविता

A poem of Umesh chandra srivastava

तुम्हारी नई कविता संग्रह आ गयी ,
फिर तुमने उन्हीं से लिखवाया ,
अपने समर्थन में उद्बोधन।
वैसे तो-तुम-उन्हें निपट कपटी समझते हो ,
पर उनसे लिखवाने के पीछे ,
तो तुमने मार्केटिंग का तर्क दिया ,
वह समझ में नहीं आया।
क्या तुम्हारी कविता  ,
उन्हीं मार्केटिंग के सरमायेदारो के ,
लिहाफ पर टिकेगी। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 



Thursday, August 2, 2018

जन्म दिवस है गीत मैं गाऊं

A poem of Umesh chandra srivastava




जन्म दिवस है गीत मैं गाऊं ,
श्रद्धा से मैं शीश नवाऊं |
तुम तो ब्रती , रथी थे इतने ,
क्या-क्या तेरा दर्प दिखाऊं |

राम काव्य की सारी महिमा ,
गया बड़े सलीके से |
और कृष्ण की कथा-कहानी ,
पेश किया अलीके से |

तुम तो मैथिलि अमर हो गये ,
हम सब तेरे चरण रज हैं |
माँ वीणा से विनती इतनी ,
हमको भी मुखरित स्वर दे |

राग द्वेष से मुक्त रहूँ मैं ,
राम कृष्ण की गाथा गाऊँ |
जो भी बिम्ब छोड़ गये तुम ,
उन बिम्बों का रस बतलाऊं |

उमेश चन्द्र श्रीवास्तव-
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, August 1, 2018

सत्य

A poem of Umesh chandra srivastava


उस पार गयी तुम सखी सुखद
उस पार का जीवन क्या होगा ?
इस पार-सखी सब भोग-जोग
उस पार बताओ क्या-क्या है ?

इस पार सखी सब स्वाद-वाद
सुख , समृद्धि और मोह पाश ,
उस पार सखी जीवन  कैसा  ?
उस पार भी क्या यह वैभव है ?('स्मृति' काव्य संग्रह से )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 


काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...