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Sunday, April 29, 2018

उतार दो दीवारों से

A poem of  Umesh chandra srivastava

उतार दो दीवारों से,
ये टंगी तस्वीरें।
हटा दो मंदिरों की मूर्तियां।
बदल डालो समाज को ,
जो दोमुहीं बात करता।
गिरगिट की तरह ,
रंग बदलते लोग।
योग में नहीं ,
भोग के परवाने हैं।
इनसे सीख लेने से ,
क्या होगा ?
जो अतीत को कोसते हैं ,
वर्तमान में भोगते हैं ,
और भविष्य को भी,
 अन्धकारमय देखते हैं।
ऐसे लोगों को फेक दो ,
या टांग दो।
किसी जर्जर दीवारों की खूँटी पर ,
टँगें रहें ,चिल्लाते रहें ,
और भोगते रहें।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of  Umesh chandra srivastava

Saturday, April 21, 2018

होरी

A poem of Umesh chandra srivastava 

'गोदान' के होरी ,
क्या तुम सम्पन्न हुए ?
आजादी के बरसों बाद भी ,
लगता है-
कि तुम -अभी वहीं हो !
जहाँ जलालत ,
फजीहत ,
अपमान ,
दुर्व्यवहार ,
सब सहते हो। 
लेकिन हर पांच वर्ष पर ,
उनके द्वारा ढगे जाते हो। 
ये 'वो' वह नहीं हैं ,
जो पहले हुआ करते थे ,
कमसे-कम-'वो' तो ,
अपनों को 
मानते ,
जानते ,
साथ देते थे ,
लेकिन ये 'वो' हैं ,
जो अपनों के ही नहीं हैं ,
तो तुम्हारे कैसे होंगे। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, April 17, 2018

कविता कितनी मनभावन है

A poem of Umesh chandra srivastava 

कविता कितनी मनभावन है ,
पैदाइश से ही सावन है। 
कितनी प्यारी लगती कविता ,
बोल रही , बतियाती कविता। 
छोटे नन्हें हाँथ-पांव से -
चलती 'औ' खुजलाती कविता। 
वह देखो हरियाली कविता ,
मोहपाश में बंधती कविता। 
सरे बंधन तोड़ रही है ,
कैसी हंसती-गाती कविता। 
बड़ी सयानी लगती कविता ,
अब कविता तो बड़ी हो गयी ,
इसीलिए खुद खड़ी हो गयी। 
पत्थर तोड़े बीच सड़क पर ,
गलियारे में डोले कविता। 
मन भावन यह पावन कविता ,
दो पर्वत का सिरा बना कर ,
बीच नदी लहराती कविता। 
कविता जीवन के ढलान पर ,
फिर भी यह मुस्काती कविता।(आगे फिर कभी ) 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, April 9, 2018

रमजानिया

A poem of Umesh chandra srivastava

रमजानिया ,
काहे गई रहे !
जानत रहे -
ऊ बड़का लोग !
सब उनके साथ !
ऊ कुछ भी करिहैं ,
सब माफ़।
हम सब डोलत रहब ,
इन्साफ बदे।
कहूं ट्रक-वक के नीचे ,
दबाय जाब !
तब ऊ अइहैं ,
भोपा बजावै बदे !




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, April 7, 2018

माई

A poem of Umesh chandra srivastava

माई पोआरा भात
कई दिन रहब हम सब
माई कब तक
लतियावा जाब हम सब।
माई तुलसी बाबा भी
लिखेन "ढोल गंवार............"
माई हमन के
देखइ वाले
कब आपन दृष्टि बदलिहैं।
माई का सबै दिन ,
हम सब पोआरा भात रहब !
याकि दिन सुधरी भी ,
माई बताव न !
बताव !!


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, April 6, 2018

मुहाने पर खड़ी

A poem of Umesh chandra srivastava

मुहाने पर खड़ी ,
आँखों में स्वप्न ,
निज रक्षार्थ ,
आती-जाती ,
डोलती-बतियाती।
शाम ढले -
देर को जब ,
दफ्तर से निकलती।
भयातुर-फटाफट ,
घर पहुंचने की लय में,
जब घर पहुंचती तो ,
गहरी सांस लेती ,
निहारती ऊपर आकाश ,
तारों को देखती ,
फिर भीतर-भीतर कहती ,
आज सलामत आ गए।
कल -
कल देखा जाएगा!



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, April 4, 2018

तुम्हारे जाने के बाद

A poem of Umesh chandra srivastava

तुम्हारे जाने के बाद ,
मैं रोया ,
सोया नहीं ,जागा ।
तुम्हारी स्मृतियों ने ,
लगा दी बदन में आग ,
झुलसा ,
सूखा ,
लेकिन ,पुलक प्रेम की डोर को ,
कभी न छोड़ा।
तुम आज भी ,
मेरी स्मृतियों में ,
लुभाती हो , रिझाती हो ,
और हठखेलियां करती हो।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, April 2, 2018

अरे, ओ! नई कविता के चितेरक !!

A poem of Umesh chandra srivastava

अरे, ओ! नई कविता के चितेरक !!
हर बात के फेरक।
बानगी देते हो ,
अपने परम्पराओं की।
बात तो तुम भी ,
वहीं से उठाते हो।
उसी गंगा-जमुना ,
और अदृश्य सरस्वती नदी से।
तुम शायद , भूल जाते हो।
कि सरस्वती अदृश्य नहीं है ,
वह दीप्तिमान है ,
हमारे-तुम्हारे अंतस में।
बस उन्हें समझने की ज़रुरत है।    (शेष फिर कभी )



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...