माझी तूने भी मुझको,
इस करुणालय में भेजा।  
खेला करता था मैं भी,
'मैं' की स्वच्छन्द वहं खेला। 
उस गहन पिंड में पल कर,
आलोकित मैं हो जाता। 
वेदना असीम वहां की,
निज मुख से न कह पता।  
जीवन दे कर तूने तो,
 किस मधु जाल में घेरा|| 
                                             - उमेश  श्रीवास्तव   
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