A poem of Umesh chandra srivastava
जो गया सब उसके ही खातिर ,
रो रहे-चिल्ला रहे।
जमीं पर रखी है मिट्टी ,
बोलते-बतिया रहे।
कर्म कैसा उसका था ,
सब उसपे जुमले गा रहे।
गर रहा-इतिहास बोधक ,
गा रहे बता रहे।
दे गया विमर्श दृष्टि ,
गाथा उसकी कह रहे।
समझ करके उसकी रेखा ,
उसकी ही समझा रहे।
फर्श पर जो शख्सियत है ,
वह रहा मगरूर या ,
जीवनों की डोर में ,
अलमस्त पवन सा बह रहा।
या कि उसने कर्म बल पर ,
कुटुम्बों को जोड़ रक्खा।
या कि उसने शब्द बल पर ,
शब्द का इतिहास रच कर ,
दे गया नव नई पीढ़ी को ,
कोई संधान दृष्टि।
या कि उसने कुछ नहीं बस ,
ज़िन्दगी की डोर बंधी।
खाया-पीया ज़िन्दगी भर ,
दे गया कुछ अटपटा सा ,
जो विचारों में ,
समन्वय की दृष्टि भी ,
न पा सका।
या कि उसने वृष्टि दे दी ,
अब बढो उसको संवारो।
या कि उसने नीवं रख दी ,
अब गढो-उसपर चढ़ो।
या कि उसने ,
उस नियंता के ,
अमर पट खोल कर ,
दर्शनों का जाल सारा ,
खूब बनाया तौल कर।
क्या कहें उसकी कहानी
अब निशानी शेष है ,
कुछ रहे ऐसे दीवाने ,
जो रहे अवशेष हैं ,
क्या कहें -अब क्या सहें ,
सब गुम्फितों में शेष है।
जो गया सब उसके ही खातिर ,
रो रहे चिल्ला रहे।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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