A poem of Umesh chandra srivastava
धूप आयी, मैं हूँ बैठा,
अंचलों में खुद हूँ ऐठा।
मुखर उद्गण ताकते, घनघोर से,
क्या सवेरा, प्रातः का
अवलोक कर लो।
दिवस का तो ताप चढ़ता जा रहा
है,
रात का शीतल पवन भी आ रहा
है।
क्या यही जीवन नहीं, कुछ
तुम तो बोलो,
क्यों अधर सीकर पड़े हो, मुख
तो खोलो।
रात की है मौन वाणी-खेल
चलता,
पर दिवस में बोलियों का मेल
चलता।
रात-दिन के ताप का परिमाप कर
लो,
जिंदगी के छोर का अनुमान कर
लो।
बस हवस में, मत बिताओ ज़िन्दगानी,
ठहरो देखो-वहां पर उपकार
बानी।
इस जगत का सत्य जानो बस वही
है,
ज़िन्दगी की यह कहानी बस सही
है।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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