A poem by Umesh chandra srivastava
श्रद्धांजलि सभा में जुटने
वाले,
बड़ी निष्ठा से बोल रहे थे|
कि वह कितने- करीब थे उसके,
कितना चाहता था वह- उन्हें|
कितनी बेबाकी से लिखता था,
कबीरा के मंजर का दृष्टांत|
उनकी तमाम कवितायेँ,
मूर्तिभंजक, लोकरंजक,
और न जाने क्या क्या?
उनकी कविताओ में,
संघर्ष, वेदना और स्पृहाएं|
सब कुछ थी|
वह काल के गाल पर,
लिख देता था अटार|
टंकार कर कहता-
करो उसका प्रतिकार,
को हमे डूबोता हो,
समेटता हो|
उसे छोडो,
आगे बढ़ो|
विचारों की क्रांति का,
वह मशाल जलाओ|
जहाँ सारे मानक पुष्ट लगे |
तमान वैचारिक पड़तालों से,
नवाज़ा जा रहा वह|
आज स्मृति के झरोखों से,
निहार रहा था|
आये हुए लोगो की निष्ठां
को,
खंगाल रहा था|
कि-कौन-क्या-क्या बहाना कर,
श्रधांजलि सभा से
खिसक रहे थे |
किसी ने किसी बैठक का,
तो किसी ने स्वाथ्य का,
रोना रोया|
और किसी ने कुछ कुछ और का|
अपने-अपने वक्तव्यों के
बाद,
वह सब के सब,
फुर्र होते गये|
और अंत तक
श्रधांजलि सभा में,
पचास ये पांच ही रह गये|
जैसे लगा मुखाग्नि के बाद,
अपने ही सिर्फ दस-पंद्रह,
शेष रहते हैं|
बाकी सब वहा से,
पलायन कर जातें हैं!
ठीक वही नज़ारा,
यहाँ भी था, यहाँ भी था, यहाँ
भी था|
उमेश चन्द्र श्रीवास्तव-
A poem by Umesh chandra srivastava