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Saturday, October 27, 2018

जन-मन तुम भयक्रान्त न होना

A poem  of Umesh chandra srivastava 



जन-मन तुम भयक्रान्त न होना ,
मन दृणज्ञ कर आगे बढ़ना। 
दुष्ट , निशाचर सब भागेंगे ,
खुद पर बस विश्वास तुम करना। 

मिथ्य बात की रेल बनाकर ,
कब तक पटरी पे  दौड़ाएंगे। 
रण मेरी बज उठी लोग की ,
मिथ्याचारी से न डरना। 

उड़ी तश्तरी फिर लौटेगी ,
जुगती का उपहास न करना। 
पूरी तन्मयता से डट कर ,
अपना पूर्ण समर्थन देना। 

बदल रहे जो मिथ्याचारी ,
उन पर कुछ तुम ध्यान न देना। 
अपनी करनी का फल भोगें ,
ऐसा ही विशवास तुम करना। 

बड़े चतुर हैं मिथ्यावादी ,
मिथक बहुत से जोड़ेंगे वह। 
पर तुम दृढ़-दृढ़ज्ञ बन करके ,
उनका बस प्रतिकार ही करना। 


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem  of Umesh chandra srivastava 

Friday, October 26, 2018

अब बिस्तर भी है , पलंग भी है

A poem of Umesh chandra srivastava


अब बिस्तर भी है , पलंग भी है।
सुख भी है, पैसा भी है।
लेकिन हम सबने चैन गंवाई हैं।
मोनू को स्कूल जाना है ,
और मुनिया की पढ़ाई भी है।
बड़ी हो जायेगी मुनिया ,
तो उसकी शादी भी रचवानी है।
मुन्ना से हम-आज भी बेफिक्र हैं ,
वह रात-बिरात चाहे जब लौटे ,
लेकिन मुनिया के लिए चिंतायी हैं।
बराबरी के दर्जे की बात करने वालों।
कहाँ यह बात सुहाई है।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, October 18, 2018

आज फिर वह हवा रंग में आ गयी

A poem of Umesh chandra srivastava


आज फिर  वह हवा रंग में आ गयी ,
राम की बात फिर से जहां छा गयी।
बोल में घोल की वह सभी रंगतें ,
फिर से अपनी छटा को वह बिखरा गयी।
श्वेत अम्बर तना-आसमा देखिये ,
यह धरा आज फिर गुनगुना सी गयी। 
बोल-अनबोल सारे चहकने लगे ,
सुर मयी बात की अब घटा छा गयी।




उमेश  चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, October 13, 2018

मेरा जीवन सब के लिए है

A poem of Umesh chandra srivastava


मेरा जीवन सब के लिए है ,
दिए जलाओ , हर घर-घर में।
प्रेम-प्यार का रस बरसाओ ,
हर मानव में प्रेम बढ़ाओ।

जीवन का है प्यार ही गहना ,
सहना-सहना सब कुछ सहना।
पर जीवन में दम्भ न करना ,
मानव हो मानव सा रहना।

कुछ अनमोल छणिक छणिका को ,
जीवन का उसे मूल्य समझना।
जो भी दोगे - वही मिलेगा ,
फिर क्या रोना धोना झूठा।

जीवन के आवृत्त सफर में ,
हर्षित पुलकित हरदम रहना।
         मेरा जीवन सब के लिए है ,
         दिए जलाओ , हर घर-घर में।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 










Thursday, October 4, 2018

तुम्हारे बाहं में

A poem of Umesh chandra srivastava

तुम्हारे बाहं में ,
आनंद का सार ,
मन विहंग -पूरा निस्सार।
      तुम्हारे बाहं में ,
      आनंद का सार।

कौतुहल , संवेग 
आवेग सब विस्तार ,
मगर तुम्हारे बाहं में,
उन सब का निस्सार।

तुम कौन
सरस नीर का
अनमोल रहस्य।
तुम्हारे नीर में
अनुपम
युगबोध का संसार।
         तुम्हारे बाहं में ,
         आनंद का सार।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...