month vise

Thursday, June 22, 2017

कृषक

poem by Umesh chandra srivastava 


                       <1>

हे कृषक तुम्हारा पूजन कर ,
श्रद्धा के पुष्प चढ़ाएंगे।
सत्ता के लोलुप सारे तो ,
तेरी आहाट पहचानेंगे।
निर्भीक रहो ,तुम मौन नहीं ,
निज हक़ के खातिर डट जाओ।
ये धुनी रमाये बैठे जो -
उनको ललकारो ,फटकारो।
सत्ता के सारे बनिया ये ,
तेरे चरणों में झुकेंगे।
बस अपनी ताकत ,
गौरव तुम -
इनको दिखलाओ ,
जहाँ भी हों।
माना जीवन तो अन्नो बल ,
चलता है ,चलता जाएगा।
तुम अन्न देवता वसुधा के ,
तुमको नतमस्तक है प्रणाम।

                       <2>

बिखरे तुम रहते -आये हो,
यह लोकतंत्र है जानो तुम !
बच्चा भी जब चिल्लाता है ,
तब माँ देती है दूध उसे।
तुम भी गर्जन-तर्जन करके ,
अपने अधिकार को मांगों तो।
ये भयाक्रान्त सत्ता धारी ,
भय खाएंगे 'औ' देंगे तुम्हें।
बस हक़ के खातिर डटे रहो ,
ये बात तुम्हारी मानेंगे।
          तुम अन्न देवता वसुधा के ,
          तुमको नतमस्तक है प्रणाम।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

No comments:

Post a Comment

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...