A poem of Umesh chandra srivastava
उस दिन छत के,
उपर देखा।
मस्त पवन के,
झोकों सी तुम।
गेसू बिखराए,
सुन्दर ललाट पर,
कुमकुम,
गुमसुम,
आसमान की ओर,
टकटकी लगाये,
देख रही थी।
उस दिन आंगन में तुम,
आंगन बुहार रही थी।
कोमल सी मीठी बोली में,
कोई सुर संलाप लगाकर,
सबको मुग्ध कर रही थी।
उस दिन घर में,
कोहराम मचा था।
भीड़ लगी थी।
घर-बाहर ,
आंगन दुआरे,
लोग कह रहे,
इतनी मृदुभाषी थी,
कुशल वयाव्हारी थी।
न जाने-वह कैसे,
काल के गाल में,
समा चुकी थी।
लोग बोलते-
क्या थी-अभी उमर ही उसकी ?
खेलने-खाने के दिन,
वह-ऐसे
यूँ ही अचानक ,
चली गयी।
कोई कहता,
अभी तो वह ,
एकदम नयी नवेली,
दुल्हन बन आई थी।
साल बरस,
अभी पांच ही बीते,
कि वह चली गयी।
ना जाने किस,
भय आतंक की,
शिकार हुई।
या घर वालों के,
कोपभाजन में,
हलाल हुई।
पुलिस भी सक्रिय रही,
वहां पर।
न जाने क्यों ?
उसका ललाट मुख,
अभी दमक रहा था।
आखें-फटी,
पथरीली-कुछ,
बयाँ कर रही।
इसी बात पर,
शंका के बादल मंडराए,
उम्र शेष थी,
फिर भी गयी,
या वह भेजी गयी वहां !
जहां से कोई नहीं लौटा।
घर वाले सब,
शक के घेरे में,
पूछ ताछ थी जारी,
वह थी खामोश,
बयां की लाश बनी,
पृथ्वी के आँचल में,
पड़ी-गली,
एकदम चिर निद्रा में,
उस दिन छत के,
उपर देखा।
मस्त पवन के,
झोकों सी तुम।
उस दिन छत के,
उपर देखा।
मस्त पवन के,
झोकों सी तुम।
गेसू बिखराए,
सुन्दर ललाट पर,
कुमकुम,
गुमसुम,
आसमान की ओर,
टकटकी लगाये,
देख रही थी।
उस दिन आंगन में तुम,
आंगन बुहार रही थी।
कोमल सी मीठी बोली में,
कोई सुर संलाप लगाकर,
सबको मुग्ध कर रही थी।
उस दिन घर में,
कोहराम मचा था।
भीड़ लगी थी।
घर-बाहर ,
आंगन दुआरे,
लोग कह रहे,
इतनी मृदुभाषी थी,
कुशल वयाव्हारी थी।
न जाने-वह कैसे,
काल के गाल में,
समा चुकी थी।
लोग बोलते-
क्या थी-अभी उमर ही उसकी ?
खेलने-खाने के दिन,
वह-ऐसे
यूँ ही अचानक ,
चली गयी।
कोई कहता,
अभी तो वह ,
एकदम नयी नवेली,
दुल्हन बन आई थी।
साल बरस,
अभी पांच ही बीते,
कि वह चली गयी।
ना जाने किस,
भय आतंक की,
शिकार हुई।
या घर वालों के,
कोपभाजन में,
हलाल हुई।
पुलिस भी सक्रिय रही,
वहां पर।
न जाने क्यों ?
उसका ललाट मुख,
अभी दमक रहा था।
आखें-फटी,
पथरीली-कुछ,
बयाँ कर रही।
इसी बात पर,
शंका के बादल मंडराए,
उम्र शेष थी,
फिर भी गयी,
या वह भेजी गयी वहां !
जहां से कोई नहीं लौटा।
घर वाले सब,
शक के घेरे में,
पूछ ताछ थी जारी,
वह थी खामोश,
बयां की लाश बनी,
पृथ्वी के आँचल में,
पड़ी-गली,
एकदम चिर निद्रा में,
उस दिन छत के,
उपर देखा।
मस्त पवन के,
झोकों सी तुम।
उमेश चन्द्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 
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