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Tuesday, May 21, 2019

वह कुत्ता

A poem of Umesh chandra srivastava

वह कुत्ता -दुआरे
सुबह आके बैठा।
कोई टुकड़ा मुहं में ,
दबाये वह ऐठा।
करम बेल पर,
वह सुबह से ही लगता।
न कहता , न सुनता ,
करम वह है करता।
सुबह का अपिरिचित ,
अगर राहगीर है,
तो कुत्ता तो केवल ,
भौकता ही है रहता।
बताता वह अनजान ,
काहे को आया।
अनिष्टा का कोई,
बनेगा क्या साया ?
यह कुत्ता समझता ,
बहुत कुछ ही बेहतर।
हम मानव नहीं-
हो भी पाते हैं तर-तर।
यह कुत्ता सिखाता ,
बहुत सी ही बातें ,
कसम से वफादारी की सब सौगातें।
बताओ जगत में ,
कोई भी  ऐसा।
जो कुत्ते से ज्यादा वफादार हो ले।






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

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