जितना वो चाहती है,
उतना ही पर्व दीखता ।
जितना वो चाहती ,
उतना ही पल्लू गिरता ।
जितना वह चाहती ,
उतनी ही ऑंखें बोलती ।
जितना वह चाहती ,
उतना ही ओठ मौन ।
खिलखिलाते , मुस्कुराते -
चहरे के हाव-भाव ,
रीझाते-उतना ही ,
जितना वह चाहती ।
क्योंकि वह अब -
समझ चुकी पुरुष की निगाहें ,
उसकी सत्ता और महत्ता ।
-उमेश श्रीवास्तव
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