सूरत तुम्हारी वह मन में बसी है ,
नयन तेरे दीदार को हैं तड़पते ।
यह प्यारा गगन है ,यह प्यरी है धरती ,
मगर मुझको कुछ भी तो भाता नहीहै ।
बड़े ही लगन से किया प्यार तुमने ,
बड़े ही जतन से मेरे पास थी तुम ।
मगर वो था झोका , समझ मैं न पाया ,
तुम दूरी बना के चली अब गयी हो ।
बताओ चमन में खिलाएं कहाँ गुल ,
तुम पूरी गुलदस्ता महक तो रही ही ।
चषक तेरे आहत की खुशबू बिखेरे ,
लूटा मैं ,लूटा हूँ ,लूटा ही रहूँगा ।
यह दर्पण मुझे अब उलहना भी देता ,
तुम्हारे लिए मुझसे लड़ता-झगड़ता ।
बताओ कहाँ जा के देखूँ मैं दर्पण ,
ये दर्पण सताता, मुझी को रुलाता ।
वह सौगंध, कसमे, वो रस्मे जहाँ की ,
जहाँ तुमने मुझसे किये थे वो वादे।
मगर उनको तोडा है तुमने मरोड़ा ,
मेरा क्या मैं लिपटा हूँ अबभी तुम्ही में ।
तुम आओ , बनाओ ,घरौंदा सुहाना ,
हो जिसमे महक हो , हो मौसम सुहाना ।
-उमेश श्रीवास्तव
-उमेश श्रीवास्तव
No comments:
Post a Comment