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Thursday, July 21, 2016

गीत

सूरत तुम्हारी वह मन में बसी है ,
नयन तेरे दीदार को हैं तड़पते । 
यह प्यारा गगन है ,यह प्यरी है धरती ,
मगर मुझको कुछ भी तो भाता नहीहै । 
बड़े ही लगन से किया प्यार तुमने ,
बड़े ही जतन से मेरे पास थी तुम । 
मगर वो था झोका , समझ मैं  न पाया ,
तुम दूरी बना के चली अब गयी हो । 
बताओ चमन में खिलाएं कहाँ गुल ,
तुम पूरी गुलदस्ता महक तो रही ही । 
चषक तेरे आहत की खुशबू बिखेरे ,
लूटा  मैं ,लूटा  हूँ ,लूटा  ही रहूँगा । 
यह दर्पण मुझे अब उलहना  भी देता ,
तुम्हारे  लिए मुझसे लड़ता-झगड़ता । 
बताओ कहाँ जा के  देखूँ मैं दर्पण ,
ये दर्पण सताता, मुझी को रुलाता । 
वह सौगंध, कसमे, वो रस्मे जहाँ की ,
जहाँ तुमने मुझसे किये थे वो वादे। 
मगर उनको तोडा है तुमने मरोड़ा ,
मेरा क्या मैं लिपटा हूँ  अबभी तुम्ही में । 
तुम आओ , बनाओ ,घरौंदा सुहाना ,
हो जिसमे महक हो , हो मौसम सुहाना  ।
                                                      -उमेश  श्रीवास्तव 

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