month vise

Saturday, April 21, 2018

होरी

A poem of Umesh chandra srivastava 

'गोदान' के होरी ,
क्या तुम सम्पन्न हुए ?
आजादी के बरसों बाद भी ,
लगता है-
कि तुम -अभी वहीं हो !
जहाँ जलालत ,
फजीहत ,
अपमान ,
दुर्व्यवहार ,
सब सहते हो। 
लेकिन हर पांच वर्ष पर ,
उनके द्वारा ढगे जाते हो। 
ये 'वो' वह नहीं हैं ,
जो पहले हुआ करते थे ,
कमसे-कम-'वो' तो ,
अपनों को 
मानते ,
जानते ,
साथ देते थे ,
लेकिन ये 'वो' हैं ,
जो अपनों के ही नहीं हैं ,
तो तुम्हारे कैसे होंगे। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

No comments:

Post a Comment

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...