A poem of Umesh chandra srivastava
अरे, ओ! नई कविता के चितेरक !!
हर बात के फेरक।
बानगी देते हो ,
अपने परम्पराओं की।
बात तो तुम भी ,
वहीं से उठाते हो।
उसी गंगा-जमुना ,
और अदृश्य सरस्वती नदी से।
तुम शायद , भूल जाते हो।
कि सरस्वती अदृश्य नहीं है ,
वह दीप्तिमान है ,
हमारे-तुम्हारे अंतस में।
बस उन्हें समझने की ज़रुरत है। (शेष फिर कभी )
अरे, ओ! नई कविता के चितेरक !!
हर बात के फेरक।
बानगी देते हो ,
अपने परम्पराओं की।
बात तो तुम भी ,
वहीं से उठाते हो।
उसी गंगा-जमुना ,
और अदृश्य सरस्वती नदी से।
तुम शायद , भूल जाते हो।
कि सरस्वती अदृश्य नहीं है ,
वह दीप्तिमान है ,
हमारे-तुम्हारे अंतस में।
बस उन्हें समझने की ज़रुरत है। (शेष फिर कभी )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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