month vise

Sunday, April 29, 2018

उतार दो दीवारों से

A poem of  Umesh chandra srivastava

उतार दो दीवारों से,
ये टंगी तस्वीरें।
हटा दो मंदिरों की मूर्तियां।
बदल डालो समाज को ,
जो दोमुहीं बात करता।
गिरगिट की तरह ,
रंग बदलते लोग।
योग में नहीं ,
भोग के परवाने हैं।
इनसे सीख लेने से ,
क्या होगा ?
जो अतीत को कोसते हैं ,
वर्तमान में भोगते हैं ,
और भविष्य को भी,
 अन्धकारमय देखते हैं।
ऐसे लोगों को फेक दो ,
या टांग दो।
किसी जर्जर दीवारों की खूँटी पर ,
टँगें रहें ,चिल्लाते रहें ,
और भोगते रहें।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of  Umesh chandra srivastava

No comments:

Post a Comment

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...