A poem of Umesh chandra srivastava
गर-वह प्रकृति तुम्हारे जैसा ,
निज जीवन व्यवहार करे।
तब तो दुःख की रजनी उसको ,
कभी नहीं आगोश में ले।
वह संतुलित नहीं रह पाता ,
चाहे जो भी कारण हो।
पल-पल में वह नयन दृगों से ,
बह्ताया रहता स्रोता।
उस अकिंचन पर दृण , करुणा ,
पर वह विचलित भी होता।
पल-पल में संतुलित भी होता ,
पल-पल में हँसता-रोता।
गर वह अपने निज भावों से ,
अपने को संतुलित करे।
उसके जैसा कोई प्राणी ,
जग में दूजा न होगा।
गर-वह प्रकृति तुम्हारे जैसा ,
निज जीवन व्यवहार करे।
तब तो दुःख की रजनी उसको ,
कभी नहीं आगोश में ले।
वह संतुलित नहीं रह पाता ,
चाहे जो भी कारण हो।
पल-पल में वह नयन दृगों से ,
बह्ताया रहता स्रोता।
उस अकिंचन पर दृण , करुणा ,
पर वह विचलित भी होता।
पल-पल में संतुलित भी होता ,
पल-पल में हँसता-रोता।
गर वह अपने निज भावों से ,
अपने को संतुलित करे।
उसके जैसा कोई प्राणी ,
जग में दूजा न होगा।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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