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Thursday, June 28, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -20

A poem of Umesh chandra srivastava


मनु श्रद्धा हों , चाहे जो भी ,
आकर्षण से खिचे रहे।
तभी तो सृष्टि का कुसुमित पल ,
सहसा फिर से शुरू हुआ।

याद मुझे है प्रकृति तुम्हारा,
मोह रहा विपरीति लिंग।
परबस , प्रतिक्षण अर्पण करने -
को आतुर तुम सहज रहे।

अरे! उर्बी तुमको वह पल ,
याद रहा होगा , हर्षित हूँ।
तेरे ही कपोल सुंदरता का ,
मैं मोहित तब से ही रहा।

न जाने कब से तुम उर्बी ,
तरुणी जैसी बनी हुई।
मैं बिहसा , टूटा रहता था ,
तब भी तुम समभाव रही।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

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