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Friday, June 8, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -16

A poem of Umesh  Chandra Srivastava



विश्लेषण करना हो , चाहो-
अलग-अलग सब कर लो भी।
मगर सत्य है हम दोनों ही ,
दोनों में समरूप रहे।

मैं उर्बी हूँ , तुम प्रकृति हो ,
मैं नारी , तुम पुरुष रहो।
तेरा मेरा मिलना होता ,
जगती को सुख देने को।

नाहक लोग प्रपंची होते ,
कहते-रहते है सुख-दुःख।
हम दोनों सहते यह सब हैं ,
पर कहते क्या , चुप रहते ?

सखे मनुज है दुर्बल प्राणी ,
जरा-जरा में हंस रोता।
जीवन की सारी संगतियाँ ,
कहाँ-कहाँ वह नहीं ढोता।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

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