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Friday, September 21, 2018

तुलसी बाबा

A poem of Umesh chandra srivastava


राम चरित मानस का ,
पाठ करते-करते ,
अचानक , तुलसी बाबा की ओर ,
ऊँगली उठ गयी।
आखिर तुलसी बाबा ने ,
क्यों नहीं रत्नावली के प्रति ,
अपने धर्म का पालन किया ,
जबकि उनके आराध्य राम ,
हरण की गयी सीता के प्रति ,
पूरी तरह पति धर्म का ,
निर्वहन किया।
तमाम धर्मशात्र ,
कर्मशास्त्र का पाठ कराने वाले ,
तुलसी बाबा ने ,
क्यों नहीं अमल किया ,
उन बातों को।
क्या यहां भी ,
वही उक्ति ,
चरितार्थ होगी ,
' बहु उपदेश कुशल बहुतेरे। '







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, September 19, 2018

नहीं चाहिए सम्पति हमको

A poem of Umesh chandra srivastava



नहीं चाहिए सम्पति हमको ,
नहीं चाहिए वह व्यवहार।
जिसमें तेरी चर्चा न हो ,
नहीं चाहिए वह इतवार।

ढूंढन में सब नयन झरोखे ,
अंग-वंग  विगलित रहते।
वही संग मैं ढूँढू कब से ,
जिसमें तेरा हो आकार।

बन , उपवन , पर्वत , जंगल हो ,
नदी-नार , पोखर , गड्ढे।
धरा , गगन , दरख्त तले तुम ,
रहती हो एकदम निर्विकार।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
A poem of Umesh chandra srivastava  

Tuesday, September 18, 2018

जीवन पथ पर संघ-संघाती

A poem of Umesh chndra srivastava


जीवन पथ पर संघ-संघाती ,
इनसे ही बारात सजी।
अकुरित जीवन सब सुख देता ,
जब जीवन संग-संग चले।
आरी! मंजू की शीतल छवियाँ ,
तुमसे ही सब राग रंग।
जब भी टूटा इस जीवन में ,
सुरभित तेरी छांव मिली।
कहाँ निराला , बेढंगी मैं ,
ढंग से मुझे बनाया भी।
मैं बौराया , पंछी सरपट ,
तुमने मार्ग दिखाया भी।
तेरा भाव , संग तेरा तो ,
धूप छाँव अंधियारे में।
सदा अडिग सी खड़ी रही तू ,
मेरे मन और द्वारे में।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chndra srivastava






Sunday, September 16, 2018

कम्बख्त नदी

A poem of  Umesh chandra srivastava


कम्बख्त नदी
इस नदी को जब देखता हूँ
तो उबल जाता हूँ।
बीते बरस
किसानों को
लील गयी थी यह नदी।
रोष से भर जाता हूँ
आवेशित हो जाता हूँ
कि जब-जब आता हूँ
इस नदी के दुआरे।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of  Umesh chandra srivastava 










Thursday, September 13, 2018

तुम कहो तो चाँद पर

A poem of Umesh chandra srivastava


तुम कहो तो चाँद पर ,
चलके जलाऊँ प्रेम दीपक।
तुम कहो तो इस धरा को ,
आसमां में ढाल दूँ मैं।
तुम कहो तो ज्वार-भाटा को ,
सहज आकार दे दूँ।
तुम कहो तो मनुज जन का ,
मैं सभी संताप हर लूं।
तुम कहो तो कृष्ण सा ,
अनुराग पूरे जग फैलाऊं।
तुम कहो तो आग को,
पानी बना के लय में लाऊँ।
तुम कहो तो द्वेष-ईर्ष्या का ,
सभी मैं पाट भर दूँ।
तुम कहो तो इस जगत को ,
शांतमय एकदम बना दूँ।
          तुम कहो तो चाँद पर ,
          चलके जलाऊँ प्रेम दीपक।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 








Tuesday, September 11, 2018

स्त्री

A poem of Umesh chandra srivastava


हर स्त्री
क्यों महसूस करती है
बादलों का बोझ।
क्यों यह मान चलती है
कि हम उसी के सहारे
उसी के लिहाफ पर
चल सकते हैं
और पा सकते हैं मुकाम।
खुद को क्यों नहीं संवारती
सूरज को छूने के लिए।








उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, September 7, 2018

नदी

A poem of Umesh chandra srivastava

नदी -१ 

नदी का बहना
तुम्हारे में
भाता है
अच्छा लगता है
लेकिन तुम बताओ
कितना थहाह पाई हो
अपने को।
नदी जैसी
गहराई की तरह।
बेसबब नदी बनने का ढोंग  
क्यों रचती हो।
नदी तो प्रवाह है।
नदी तो अथाह है।
और नदी तो नदी है।

नदी -२ 

तुम्हारे क़रीब से 
जब कोई नदी गुज़रती है 
तो क्या महसूस करती हो ?
नदी का बगल से 
गुज़र जाना 
कोई मज़ाक है क्या ?
यूँ ही महसूस कर लेती हो 
नदी का बगल से 
गुज़र जाना ! 
क्या समझती हो 
नदी को ?
नदी-एक नाद है। 
प्रेम-शांती और सबरस का प्रतीक है। 
तुममे है वह सब ! 
है क्या वह सब !!  






 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, September 5, 2018

ये नज़ारे ,ये जमुन का तट यह ,

A poem of Umesh chandra srivastava


ये नज़ारे ,ये जमुन का तट यह , 
यहाँ हैं फूल-सैकड़ों भौरे।
नज़र बचा के प्यार को आतुर ,
कहें इन्हें क्या - ये  कंवारे सब हैं।
करते हैं प्यार-ये हुजूम में भी ,
इनका तो प्यार देहं तक समझो।
यह जो चल रहा है दौर ,कम्बख्त बहुत ,
माँ-बाप का फिक्र कहाँ-सारे  बिन्दास हुए।
या खुदा-तुम ही करो कोई जतन ,
ये सारे कंवारे तो अब बर्बाद हुए।









उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, September 1, 2018

सोहै मुरली की तान सुहानी

A poem of Umesh chandra srivastava

सोहै मुरली की तान सुहानी ,
बड़ा नीक लागै देवरानी।
छोट-छोट  बहियाँ ले ,
नान्ह-नान्ह पउंवां ,
ठुमुक चलें 'औ' यशोदा लजानी।
          बड़ा नीक लागै देवरानी।

धाए-धाए भागे ,
'औ ' धाए-धाए लुकाये ,
ढूँढत-फिरत , माँ हैरानी।
          बड़ा नीक लागै देवरानी।

दंतुल दीखै , बदन छहराए ,
उसपे मोर मुकुट हरषानी ,
          बड़ा नीक लागै देवरानी।

माखन खाये ,दही बिखराये ,
सारी गोपन को खूब चिढ़ाए ,
उसपे गोप खिसियानी।
          बड़ा नीक लागै देवरानी।

अंजुरी भर-भर के हाथ नचावै ,
सब गोपन से रार मचावै  ,
करैं शिकायत , बड़ी परेशानी ,
          बड़ा नीक लागै देवरानी। 




उमेश  चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...