उनका कुछ भी कह देना ,
मज़ाक है क्या ?
लोकतंत्र के चौपहिये ,
कब- तक ,
बाजारवाद में रमोगे।
कब-तक -
मालिकान के हुक्मों की ,
तामील करोगे।
पेट की खातिर ,
रोटी के लिए ,
कब-तक मरोगे।
जीवन की सच्चाई है मरना ,
तो फिर क्या डरना।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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