A poem of Umesh chandra srivastava
तभी तो सृष्टि का कुसुमित पल ,
सहसा फिर से शुरू हुआ।
याद मुझे है प्रकृति तुम्हारा,
मोह रहा विपरीति लिंग।
परबस , प्रतिक्षण अर्पण करने -
को आतुर तुम सहज रहे।
अरे! उर्बी तुमको वह पल ,
याद रहा होगा , हर्षित हूँ।
तेरे ही कपोल सुंदरता का ,
मैं मोहित तब से ही रहा।
न जाने कब से तुम उर्बी ,
तरुणी जैसी बनी हुई।
मैं बिहसा , टूटा रहता था ,
तब भी तुम समभाव रही।
मनु श्रद्धा हों , चाहे जो भी ,
आकर्षण से खिचे रहे।तभी तो सृष्टि का कुसुमित पल ,
सहसा फिर से शुरू हुआ।
याद मुझे है प्रकृति तुम्हारा,
मोह रहा विपरीति लिंग।
परबस , प्रतिक्षण अर्पण करने -
को आतुर तुम सहज रहे।
अरे! उर्बी तुमको वह पल ,
याद रहा होगा , हर्षित हूँ।
तेरे ही कपोल सुंदरता का ,
मैं मोहित तब से ही रहा।
न जाने कब से तुम उर्बी ,
तरुणी जैसी बनी हुई।
मैं बिहसा , टूटा रहता था ,
तब भी तुम समभाव रही।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava