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Saturday, May 27, 2017

आकृति

poem by Umesh chandra srivastava 

सीलन  भरी दीवारों में ,
आज भी -
वह आकृति है।
जो तुमने ,
कीलों की नोक से -
बनाया था।
आज भी वह ,
भावों की आकृति ,
प्रतिक्षण ,प्रतिपल -
बदलते-बदलते ,
दृष्टि से दिखती है।
कभी राम नज़र आते हैं ,
तो कभी श्याम ,
तो कभी घनश्याम।
यह आकृति भी खूब है ,
भावों के प्रसांगिक ,
सोपान के लिए।






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, May 25, 2017

मौन भी अभिव्यंजना है -2

poem by Umesh chandra srivastava

                                      मौन भी अभिव्यंजना है ,
                                      शब्द वहं पर कहाँ ठहरे। 

मौन देखो वह पड़ी थी ,
मौन में देहों की भाषा,
अर्थ को विस्तार देती। 

अर्थमय संकेत सारे ,
मौनता से आ पड़े हैं। 
वह देखो-नन्हा वह बच्चा ,
मौनता से मांगता है ,
माँ समझ जाती-उसे अब ,
चाहिए क्या -यह सम्भाषण। 

मौनता के बल से देखो ,
सृष्टि का विस्तार होता। 
मौन ही प्रकृति हमारी ,
मौन रह कर कह रही है। 
दूर गगनों में सितारे ,
मौनता के बल हैं सुन्दर। 

चन्द्रमा का शोभ शीतल ,
मौनता का कुशल वक्ता। 
मौनता का क्षण निराला। 
मौनता का बल निराला। 
मौनता का छल निराला।

मौनता अर्पण में सुन्दर ,
मौनता की वृष्टि सारी। 
शब्द तो अखरन हैं देते ,
मौनता सब ही बुनावट ,
सदा कौशल से है करता। 

            मौन भी अभिव्यंजना है ,
          शब्द वहं पर कहाँ ठहरे। 





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Wednesday, May 24, 2017

उद्धार की खातिर

poem by Umesh chandra srivastava

तुम्हारे कहने से-
मैं रुकी थी।
वरना मैं कितना ,
थक के चूर थी।
पर तुम कहाँ - मानने वाले ,
भरकर किसी बन्दूक की तरह ,
तड़ा-तड़ चला रहे थे गोली।
पर, मैं कुछ बोली।
नहीं न ,वह तुम्हारा अधिकार था !
मगर मेरे अधिकार के खातिर ,
क्यों बौने हो जाते हो तुम!
क्यों दुहाई देने लगते हो तुम !
धर्म शास्त्र की बातों में बहका कर ,
सदियों से तुम लोगों ने -
नारी का कहाँ सम्मान किया।
देख लो-रमायण उठा कर ,
अहिल्या को।
क्या दोष था उसका ?
छला था तो उसे इंद्र ने ,
लकिन शापित हुई वह।
बिन अपराध के ,
अपराधिनी बनी वह।
और त्रेता युग तक ठहरी ,
अपने उद्धार की खातिर।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, May 23, 2017

मौन भी अभिव्यंजना है

poem by Umesh chyandra srivastava

मौन भी अभिव्यंजना है ,
शब्द यहं पर कहाँ ठहरे।
पर बताओ अर्थ में विस्तार ,
कितना ही सुखद है।

बात सब ही बोलते हैं ,
मौन, सम्भाषण नहीं।
पर बताओ अर्थ में ,
अड़चन कहाँ पर है यहाँ।

वह खड़ी अपलक देखो-
भीग के कुछ प्रेम रस में।
या विरह के कुछ अनोखे ,
संयोग की इच्छा को आतुर।

मौन उसका बोलता है ,
शब्द में बातें कहाँ यह।
मौन ही साधक रहा है ,
गौर से देखो अगर तुम।

सर्जना के क्षण में देखो -
मौन का कितना ही रस है।
मौनता के बल पे बंधू ,
सृष्टि का विस्तार समझो।

आनंद के अनमोल क्षण में ,
मौन से बढ़िया क्या भाषण ?
मौन होकर ले लिया है ,
रससिक्ति का पहर वह।
         मौन भी अभिव्यंजना है ,
         शब्द यहं पर कहाँ ठहरे।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chyandra srivastava 

Monday, May 22, 2017

सखी री, श्याम करे बरजोरी

poem by Umesh chandra srivastava

 सखी री, श्याम करे बरजोरी।
         गउवा लैके ,जब-जब जावत,
         देखत मोको-खूब खिझावत।
         लै चलती जब पानी गागर,
         राह में चेका बहुत चलावत।
         सुबह पहर जब बाहर निकलूं ,
         देख करत वह खीस निपोरी।
                सखी री, श्याम करे बरजोरी।

दिवस पहर वह बंशी तट पर ,
सब सखियाँ को खूब रिझावत।
मधुर-मधुर बंशी वह टेरत ,
मन बरबस निज ओर झकोरत।
ताल-तलैया सब हलचल में ,
पशु-पक्षी भी इत-उत डोलत।
सब कुछ करत बहुत निक लागत,
पर वह जो भी करत ठिठोरी।
           सखी री, श्याम करे बरजोरी।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

Sunday, May 21, 2017

तुम्हें चाँद कहूँ या सूरज

poem by Umesh chandra srivastava

तुम्हें चाँद कहूँ या सूरज ,
तारा का नाम जो दे दूँ।
तुम ध्रुव तारा सा बनना ,
जो अडिग रहा जीवन भर।

जीवन के मोल को समझो ,
जीवन का खोल यही है।
जीवन में गर कुछ करना ,
तो अडिग रहो बातों पर।

जीवन का मोल सुखद है ,
जीवन से सब कुछ मिलता।
मत कोई संकुचन करना ,
जीवन पथ आगे बढ़ना।

उतना तो सरल नहीं है ,
बाधाएं अगणित इसमें।
पर उसे सम्भालो संयम ,
जीवन तो सुखद रहेगा।

पथ कंटक सारे जो हैं ,
वह अपने आप छटेंगे।
जीवन तो धार कटारी ,
पर अडिग तुम आगे बढ़ना।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, May 18, 2017

दो बिम्ब

poem by Umesh chandra srivastava

                             (१)
कमल नयन ,सुरभित किरण ,प्रतिदिन होता प्रात।
जल-कल पर बिम्बित हुआ ,प्रकृति का अनुपात।
जल लेकर कमली चली ,सुदृढ़ बदन चितचोर।
आओ मिल सब देखलें ,इसका सुन्दर स्रोत।

                             (२)
आते मन भाव में ,अकुलाहट चुपचाप।
धीरे-धीरे  शब्द का-बनता है परताप।
बिम्ब गढ़े क्या जायेंगे ,खुद ही करेंगे बात।
ऐसे में तन बेसुधा ,रचने लगा सुलाप।




उमेश चंद्र श्रीवस्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, May 13, 2017

चाँद चांदनी

poem by Umesh chandra srivastava 


चाँद चांदनी को,
देख रहे हो।
तुमसे ही है ,
पर न जाने क्यों ,
तुमसे अधिक खिला है। 
मिलन की मधुरतम बेला में ,
तुम्हारे आगोश में ,
समाहित होने के लिए। 
लगता है-आज वह ,
बेचैन है। 
तुम खामोश सिकुड़ते जा रहे हो,
ज़रा देखो तो सही ,
चांदनी की व्यथा ,
समझो तो सही। 
क्यों मौन हो ?
बोलो - कुछ तो बोलो ,
अपने मुख ललाट की ,
वह अप्रतिम छवि ,
आज कुछ तो खोलो ,
 कुछ तो खोलो। 





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 



Friday, May 12, 2017

ओ पाखी ,पाखी

poem by Umesh chandra srivastava

नयन तुम्हारे बेमिसाल ,ओ पाखी ,पाखी।
इसमें मिले है खुमार ,ओ पाखी ,पाखी।
नयनों का विचित्र है भाव,ओ पाखी ,पाखी।
इसमें ममता ,दुलार ,ओ पाखी ,पाखी।
इसमें है प्रेम-इज़हार ,ओ पाखी ,पाखी।
खोये-खोये क्यों हैं आज ,ओ पाखी ,पाखी।
कुछ तो करो ऐतबार ,ओ पाखी ,पाखी।
कहाँ गयी तुम गुलज़ार ,ओ पाखी ,पाखी।






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Thursday, May 11, 2017

आज पाती आ गयी

poem by Umesh chandra srivastava


आज पाती आ गयी -उसमें लिखा।
चल पड़ो उस ओर-तुमने क्या किया ?
सब वसूलों का यहाँ हिसाब दो।
उस नियंता के समक्ष सुविचार दो।
पूछेगा-जीवन में तुमने क्या किया ?
कितनों को सन्मार्ग तुमने है दिया।
तब बताओ क्या कहोगे तुम भला।
इसलिए सुविचार जीवन की कला।
और इसमें ही रमों आगे बढ़ो।
सब मिलेगा जिस लिए जीवन मिला।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Friday, May 5, 2017

माँ का रूप तो चंदा-सूरज

poem by Umesh chandra srivastava 

माँ का रूप तो चंदा-सूरज , 
माँ की गोद तो धरती है।
माँ का प्रेम गगन सा ऊँचा ,
माँ की सोच पातालपुरी। 
माँ का दूध अमर अमृत है ,
माँ की गोद बसंत ऋतु। 
माँ का दर्पण मुख-खुब सुन्दर-
उसमें जो चाहो देखो। 
माँ का प्रेम दुलार हमेशा-
बच्चों में स्फूर्ति भरे। 
माँ के चलते बच्चा बढ़ता-
जग में नाम करे रोशन।
माँ ही तो वह समय-वमय है ,
बच्चों की हितकारक माँ। 
माँ से ही सब सपने खिलते,
माँ से ही सब रीति-रिवाज। 
माँ बिन जग में कुछ भी नहीं है,
माँ ही जीवन का सरगम।
माँ तो गीत-संगीत वही है ,
माँ ही कविता की पतवार। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

Tuesday, May 2, 2017

तुमको तो क्या कहें हम



तुमको तो क्या कहें हम ,
तुम बेहिसाब हो।
रातों को जागते हो ,
दिन में विराम है।
संतों की यही बाणी,
भोर में राम है।
रातों के गहरुएपन ,
कि क्या मिसाल है।
तुमने तो पढ़ा गीता -
न कोई किताब को।
बस धुन में जीते अपने ,
तुम क्या हिसाब हो ?
गैरों पे करम करते ,
अपनों को त्याग तुम।
लाइक में रात होते ,
गैरों से बात खूब।
अपनों से मुँह छिपाते ,
तुम्हें क्या मिसाल दें।
क्या इस तरह से जीवन ,
संगत में बनेगा।
क्या होगा अब तुम्हारा ,
तुम तो तबाब हो।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Monday, May 1, 2017

तीन बिम्ब

poem by Umesh chandra srivastava

                              [१]
ज़रा लब को तो खोलो ,प्यार से दो बात कर लो तुम।
पुरानी रंजिशों को छोड़ ,कुछ सौगात कर लो तुम।
नहीं तुम हमसे मत बोलो-ज़रा इस ओर तो देखो।
सुनाई देगा जीवन में ,वही किस्सा पुराना है।
                           
                              [२]
अगर में 'औ' मगर में ,ज़िंदगी को क्यों गंवाते हो।
चलेंगे साथ का दावा ,ज़रा पैबंद तो खोलो।
ज़रा सी आँधियों में तुम यू हीं सिमटे ,हो रूठे हो।
ये जीवन कंटकों का जाल इसको पार कर लो तुम।

                              [३]
दवा का क्या असर होता ,तुम तो डाक्टर ठहरे।
अगर नासूर हो जाए ,बताओ क्या करें तब हम।
फ़क़त एक बात को बांधे हुए तुम रूठ के बैठे।
इशारों में अगर समझो तुम्हीं तो यार हो अपने।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...