poem by Umesh chandra srivastava
तुम्हारे कहने से-
मैं रुकी थी।
वरना मैं कितना ,
थक के चूर थी।
पर तुम कहाँ - मानने वाले ,
भरकर किसी बन्दूक की तरह ,
तड़ा-तड़ चला रहे थे गोली।
पर, मैं कुछ बोली।
नहीं न ,वह तुम्हारा अधिकार था !
मगर मेरे अधिकार के खातिर ,
क्यों बौने हो जाते हो तुम!
क्यों दुहाई देने लगते हो तुम !
धर्म शास्त्र की बातों में बहका कर ,
सदियों से तुम लोगों ने -
नारी का कहाँ सम्मान किया।
देख लो-रमायण उठा कर ,
अहिल्या को।
क्या दोष था उसका ?
छला था तो उसे इंद्र ने ,
लकिन शापित हुई वह।
बिन अपराध के ,
अपराधिनी बनी वह।
और त्रेता युग तक ठहरी ,
अपने उद्धार की खातिर।
तुम्हारे कहने से-
मैं रुकी थी।
वरना मैं कितना ,
थक के चूर थी।
पर तुम कहाँ - मानने वाले ,
भरकर किसी बन्दूक की तरह ,
तड़ा-तड़ चला रहे थे गोली।
पर, मैं कुछ बोली।
नहीं न ,वह तुम्हारा अधिकार था !
मगर मेरे अधिकार के खातिर ,
क्यों बौने हो जाते हो तुम!
क्यों दुहाई देने लगते हो तुम !
धर्म शास्त्र की बातों में बहका कर ,
सदियों से तुम लोगों ने -
नारी का कहाँ सम्मान किया।
देख लो-रमायण उठा कर ,
अहिल्या को।
क्या दोष था उसका ?
छला था तो उसे इंद्र ने ,
लकिन शापित हुई वह।
बिन अपराध के ,
अपराधिनी बनी वह।
और त्रेता युग तक ठहरी ,
अपने उद्धार की खातिर।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
No comments:
Post a Comment