poem by Umesh chandra srivastava
मौन भी अभिव्यंजना है ,
शब्द वहं पर कहाँ ठहरे।
मौन देखो वह पड़ी थी ,
मौन में देहों की भाषा,
अर्थ को विस्तार देती।
अर्थमय संकेत सारे ,
मौनता से आ पड़े हैं।
वह देखो-नन्हा वह बच्चा ,
मौनता से मांगता है ,
माँ समझ जाती-उसे अब ,
चाहिए क्या -यह सम्भाषण।
मौनता के बल से देखो ,
सृष्टि का विस्तार होता।
मौन ही प्रकृति हमारी ,
मौन रह कर कह रही है।
दूर गगनों में सितारे ,
मौनता के बल हैं सुन्दर।
चन्द्रमा का शोभ शीतल ,
मौनता का कुशल वक्ता।
मौनता का क्षण निराला।
मौनता का बल निराला।
मौनता का छल निराला।
मौनता अर्पण में सुन्दर ,
मौनता की वृष्टि सारी।
शब्द तो अखरन हैं देते ,
मौनता सब ही बुनावट ,
सदा कौशल से है करता।
मौन भी अभिव्यंजना है ,
शब्द वहं पर कहाँ ठहरे।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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