poem by Umesh chandra srivastava
चाँद चांदनी को,
देख रहे हो।
तुमसे ही है ,
पर न जाने क्यों ,
तुमसे अधिक खिला है।
मिलन की मधुरतम बेला में ,
तुम्हारे आगोश में ,
समाहित होने के लिए।
लगता है-आज वह ,
बेचैन है।
तुम खामोश सिकुड़ते जा रहे हो,
ज़रा देखो तो सही ,
चांदनी की व्यथा ,
समझो तो सही।
क्यों मौन हो ?
बोलो - कुछ तो बोलो ,
अपने मुख ललाट की ,
वह अप्रतिम छवि ,
आज कुछ तो खोलो ,
कुछ तो खोलो।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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