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Saturday, May 13, 2017

चाँद चांदनी

poem by Umesh chandra srivastava 


चाँद चांदनी को,
देख रहे हो।
तुमसे ही है ,
पर न जाने क्यों ,
तुमसे अधिक खिला है। 
मिलन की मधुरतम बेला में ,
तुम्हारे आगोश में ,
समाहित होने के लिए। 
लगता है-आज वह ,
बेचैन है। 
तुम खामोश सिकुड़ते जा रहे हो,
ज़रा देखो तो सही ,
चांदनी की व्यथा ,
समझो तो सही। 
क्यों मौन हो ?
बोलो - कुछ तो बोलो ,
अपने मुख ललाट की ,
वह अप्रतिम छवि ,
आज कुछ तो खोलो ,
 कुछ तो खोलो। 





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 



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