poem by Umesh chandra srivastava
सखी री, श्याम करे बरजोरी।
गउवा लैके ,जब-जब जावत,
देखत मोको-खूब खिझावत।
लै चलती जब पानी गागर,
राह में चेका बहुत चलावत।
सुबह पहर जब बाहर निकलूं ,
देख करत वह खीस निपोरी।
सखी री, श्याम करे बरजोरी।
दिवस पहर वह बंशी तट पर ,
सब सखियाँ को खूब रिझावत।
मधुर-मधुर बंशी वह टेरत ,
मन बरबस निज ओर झकोरत।
ताल-तलैया सब हलचल में ,
पशु-पक्षी भी इत-उत डोलत।
सब कुछ करत बहुत निक लागत,
पर वह जो भी करत ठिठोरी।
सखी री, श्याम करे बरजोरी।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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