month vise

Monday, May 22, 2017

सखी री, श्याम करे बरजोरी

poem by Umesh chandra srivastava

 सखी री, श्याम करे बरजोरी।
         गउवा लैके ,जब-जब जावत,
         देखत मोको-खूब खिझावत।
         लै चलती जब पानी गागर,
         राह में चेका बहुत चलावत।
         सुबह पहर जब बाहर निकलूं ,
         देख करत वह खीस निपोरी।
                सखी री, श्याम करे बरजोरी।

दिवस पहर वह बंशी तट पर ,
सब सखियाँ को खूब रिझावत।
मधुर-मधुर बंशी वह टेरत ,
मन बरबस निज ओर झकोरत।
ताल-तलैया सब हलचल में ,
पशु-पक्षी भी इत-उत डोलत।
सब कुछ करत बहुत निक लागत,
पर वह जो भी करत ठिठोरी।
           सखी री, श्याम करे बरजोरी।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

No comments:

Post a Comment

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...