A poem of Umesh chandra srivastava
कहो भारती कैसी हो ,
टूटा तंत्र मुक्त आँगन में ,
नव युग के सुरभित कण-कण में ,
थकी-थकी तुम लगती हो ,
कहो भारती कैसी हो।
अब इस जग के ,
लोग-बाग़ सब ,
मुक्त कंठ से गाते तुमको ,
क्या तुम भी महसूस कर रही ,
जग अच्छा है , सब सच्चा है।
या फिर सब कुछ सुन-सुन करके ,
तुम भी चुप-चुप रहती हो।
कथनी-करनी एक हुआ क्या ?
क्या समझी तुम कैसी हो।
कहो भारती कैसी हो।
जग भर के सब सुरभित तारे ,
डोल-डोल सब बोलें दुलारे ,
कहते-तुम खुशहाल प्रकृति में ,
लोकतंत्र के तंत्र-मंत्र में ,
क्या लगता तुम कैसी हो ?
कहो भारती कैसी हो। (क्रमशः -आगे कल )
कहो भारती कैसी हो ,
टूटा तंत्र मुक्त आँगन में ,
नव युग के सुरभित कण-कण में ,
थकी-थकी तुम लगती हो ,
कहो भारती कैसी हो।
अब इस जग के ,
लोग-बाग़ सब ,
मुक्त कंठ से गाते तुमको ,
क्या तुम भी महसूस कर रही ,
जग अच्छा है , सब सच्चा है।
या फिर सब कुछ सुन-सुन करके ,
तुम भी चुप-चुप रहती हो।
कथनी-करनी एक हुआ क्या ?
क्या समझी तुम कैसी हो।
कहो भारती कैसी हो।
जग भर के सब सुरभित तारे ,
डोल-डोल सब बोलें दुलारे ,
कहते-तुम खुशहाल प्रकृति में ,
लोकतंत्र के तंत्र-मंत्र में ,
क्या लगता तुम कैसी हो ?
कहो भारती कैसी हो। (क्रमशः -आगे कल )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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