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Wednesday, March 7, 2018

अज्ञेय

A poem of Umesh chandra sriasvtava


अज्ञेय -
तुम ने क्या कर दिया !
ज्ञेयता का दोहन ,
कुछ इस प्रकार किया ,
कि तमाम-छंदमयता ही ,
क्षीर्ण होती जा रही है।
अब देखो - नए कवि ,
कैसी लिख रहे कविता।
क्षणिका की बानगी ,
नएपन के चक्कर में ,
सब कुछ नया ,
होता जा रहा।
विचार -खांचा ,
शब्द ,
बानगी ,
प्रवाह ,
सभी का लोप।
क्या-तुम अब भी ,
कहोगे-जहाँ हो तुम!
लेकिन-बानगी दी तुम्ही ने।
इसलिए तुम्हें आज ,
फिर से-परखा जाना चाहिए।
नए सरोकारों के सन्दर्भ में ,
देख रहे हो आज ,
कविता के क्षेत्र में ,
दो धाराएं-हो गयीं हैं विकसित। 
अब मंचीय कवि अलग ,
और गैर मंचीय कवि अलग।
यह फर्क बताता है ,
कि अब-कविता कहाँ खड़ी है।
चौराहे ,
और बंद कमरे की ,
इस कविता को ,
समझना होगा। 
तभी कुछ हो पायेगा ,
वरना-तुम्हारा आंदोलन ,
बेवजह , बेमानी ,
रह जाएगा।
अज्ञेय ,
आज पुनः ,
ज्ञेयता की दरकार है। 
वरना समाज की ,
फटकार झेलो तुम ,
और हम सब भी। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra sriasvtava 

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