A poem of Umesh chandra srivastava
तीन सौ पैसठ दिनों में ,
एक दिन महिला दिवस !
मज़ाक है !!
या उपहास !!!
समझना होगा।
जिसके अस्तित्व के बिना ,
संसार को देखा जाना ,
स्वप्न है।
ठीक उसी प्रकार ,
जैसे ,
सदियों से छली जा रही स्त्री ,
आज भी तलाश रही ,
अपना अधिकार ,
अपना हक़ ,
और अपनी सत्ता।
महत्ता वालों से पूछिए ,
क्या दे सकेंगे ,
उसे सत्ता !
या साल का एक दिन ,
उसके नाम कर ,
उसे बताते रहेंगे ,
उसकी महत्ता।
तीन सौ पैसठ दिनों में ,
एक दिन महिला दिवस !
मज़ाक है !!
या उपहास !!!
समझना होगा।
जिसके अस्तित्व के बिना ,
संसार को देखा जाना ,
स्वप्न है।
ठीक उसी प्रकार ,
जैसे ,
सदियों से छली जा रही स्त्री ,
आज भी तलाश रही ,
अपना अधिकार ,
अपना हक़ ,
और अपनी सत्ता।
महत्ता वालों से पूछिए ,
क्या दे सकेंगे ,
उसे सत्ता !
या साल का एक दिन ,
उसके नाम कर ,
उसे बताते रहेंगे ,
उसकी महत्ता।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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