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Friday, March 30, 2018

राम राज्य का कल्प

A poem of Umesh chandra srivastava

राम राज्य का कल्प ,
तुम्हें बतलाना होगा।
मंदिर का निर्माण ,
वहीं करवाना होगा।

जहाँ राम का रसमंजन हो ,
जहाँ राम की बेल बढे ,
जहाँ राम का गुन चर्चित ,
व्यवहारों में वह अर्पित हो ,
वही भाव के तार,
तुम्हें फैलाना होगा।

सीता का व्यवहार ,
नारी का प्यार ,
प्रगति का सार ,
सभी झंकार तुम्हें ,
बतलाना होगा।

कृष्ण की सीख ,
गीत में प्रीत ,
रीत में हीत ,
तुम्हें सिखलाना होगा।

भ्रमित संगीत ,
यह  टालू नीति ,
सभी सुलझाना होगा।

यह अपना देश ,
मुखर प्रदेश ,
बाँट की नीति ,
हाट की प्रीत ,
सभी बिसराना होगा।
        राम राज्य का कल्प ,
        तुम्हें बतलाना होगा।





 उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, March 27, 2018

उस नए कवि की

A poem of Umesh chandra srivastava


उस नए कवि की ,
इस कवि ने कविता देखी।
पढ़ी और कहा ,
कविता अच्छी है ,
लेकिन कसाव नहीं है।
सजावट-बुनावट का आभाव है ,
नए कवि ने पूछा ,
यह क्या बला है ?
तो उस कवि ने बताया-
जैसे बढ़ई गढ़ता है ,
मेज कुर्सी व अन्य ,
बनाने के बाद ,
उसको फिनिशिंग टच देता है।
सनमाइका लगाता है ,
बारीकी से कोना-अतरा ,
चिकना करता है।
बस वही कमी है इस कविता में -
नया कवि सुनता रहा।
और उस कवि की कविता में ,
ढूंढता-रहा ,
चिकनाई और कसाव।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, March 24, 2018

बेरोज़गारी की तपन

A poem of Umesh chandra srivastava

उस रोज ,
सुबह उठते ही ,
बच्चे को दूध पिलाती-सुधिया।
बार-बार ,
अपनी छाती देखती ,
और पति से कहती ,
दूध नहीं हो रहा है।
हमे कोई गम नहीं ,
न मिलेगा , न खाएंगे ,
पर वह निवाला ,
जरूर ला दो ,
ताकि दूध तो बने।
और पति लाचार ,
देखता-अखबार।
रिज़ल्ट आ चुका ,
नियुक्ति पत्र की आस में ,
इस दूसरी पीढ़ी को झोकता हुआ ,
बेरोज़गारी की तपन-
को महसूस कर रहा है।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, March 23, 2018

माँ का दरबार

A poem of Umesh chandra srivastava

आज माँ के दरबार गया ,
भीड़ , भक्त , पण्डे ,
और पुलिस के डंडे ,
सब दिखा ,
लेकिन ,
नहीं दिखा वह लगाव !
वह कसाव ,
वह पड़ाव ,
जिसके लिए ,
लोग आते हैं माँ के दरबार में।
जगह-जगह दिखे ,
सियासी पोस्टर ,
बैनर से पटे रास्ते ,
संकरी गलियां ,
और वहाँ सजी ,
दुकानों की प्रतिस्पर्धाएं।
कोई पांच का ,
नारियल बेच रहा ,
कोई तीन का ,
लेकिन कुल मिला कर ,
 इक्यावन से कम नहीं ,
था पूजा-प्रसाद का सामान।
दर्शन कराने को - पंडों की आतुरता ,
बौखलाए-दर्शनार्थियों की बिह्वलता ,
और पुलिसाई सांठ-गाँठ ,
सब दिखा।
लेकिन-आस्था और भक्ति का ,
वह रससिक्त भाव ,
गायब मिला।






  उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Sunday, March 18, 2018

कहो भारती कैसी हो-3

A poem by Umesh chandra srivastava

कहो भारती कैसी हो ,
इस जग के सब ,
लोक लुभावन ,
नारे में- तुम कैसी हो।

           कहो भारती कैसी हो।

नभ का तारा टूट रहा है ,
लोक तंत्र तो छूट रहा है। 
वादे-नारों की झुरमुट में ,
प्रसन्नचित क्या रहती हो ? 
            कहो भारती कैसी हो। 

क्या भारत एकल पथ डोले ,
समवेती स्वर को ही छोड़े ,
हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-इसाई ,
आपस में सब भाई-भाई। 
अब क्या यह नाता ही मोड़ा ,
क्या कहती सब सहती हो ?
               कहो भारती कैसी हो। 





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem by Umesh chandra srivastava 

Saturday, March 17, 2018

कहो भारती कैसी हो -2

A poem of Umesh chandra srivastava

कहो भारती कैसी हो ,
टूटा तंत्र मुक्त आँगन में ,
नव युग के सुरभित कण-कण में ,
थकी-थकी तुम लगती हो ,
            कहो भारती कैसी हो।

अब इस जग के ,
लोग-बाग़ सब ,
मुक्त कंठ से गाते तुमको ,
क्या तुम भी महसूस कर रही ,
जग अच्छा है , सब सच्चा है।
या फिर सब कुछ सुन-सुन करके ,
तुम भी चुप-चुप रहती हो।
कथनी-करनी एक हुआ क्या ?
क्या समझी तुम कैसी हो।
             कहो भारती कैसी हो।

जग भर के सब सुरभित तारे ,
डोल-डोल सब बोलें दुलारे ,
कहते-तुम खुशहाल प्रकृति में ,
लोकतंत्र के तंत्र-मंत्र में ,
क्या लगता तुम कैसी हो ?
                  कहो भारती कैसी हो।  (क्रमशः -आगे कल )



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, March 16, 2018

कहो भारती कैसी हो

A poem of Umesh chandra srivastava

कहो भारती कैसी हो ,
आँखों में अंजन की धारा।
मस्त हवा का अद्भुत नारा ,
क्या कहती हो कैसी हो।

जब तुम मुक्त हुई थी उनसे ,
कारापन कुछ दूर हुआ था।
अब बोलो तुम  कैसी हो।

वह दूजे का दोहन करते ,
बड़ी आपदा झेल चुकी तुम।
अब बोलो तुम कैसी हो।
                  कहो भारती कैसी हो। (क्रमशः-कल )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, March 12, 2018

गीत

A poem of Umesh chandra sriasvatav

गीत गाओ सजन ,
मुस्कुराओ सजन।
इस  ज़माने में,
इसकी ज़रुरत बहुत।

सब लपेटे में हैं ,
सब  समेटे में हैं।
बांछें अपनी खिलने में ,
सब व्यस्त हैं।
यह जो दस्तूर है ,
अब  चलन हो गया ,
जनता सोए या रोए ,
नेता मगन हो गया। 
बात उसकी सुनो ,
कुछ भी न तुम कहो ,
सब लपेटे में-
लिपटा गगन हो गया।

कुछ तो जागो सजन ,
कुछ तो बोलो सजन।
वरना यह सब लुटेरे ,
सभी लूट कर ,
अपना दामन भरेंगे ,
यह 'छक' छूटकर।
इनको कुछ भी नहीं ,
निज से है वास्ता।

          गीत गाओ सजन ,
          मुस्कुराओ सजन।
          इस  ज़माने में,
          इसकी ज़रुरत बहुत।



  उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra sriasvatav 

Thursday, March 8, 2018

महिला दिवस

A poem of Umesh chandra srivastava


तीन सौ पैसठ दिनों में ,
एक दिन महिला दिवस !
मज़ाक है !!
या उपहास !!!
समझना होगा।
जिसके अस्तित्व के बिना ,
संसार को देखा जाना ,
स्वप्न है।
ठीक उसी प्रकार ,
जैसे ,
सदियों से छली जा रही स्त्री ,
आज भी तलाश रही ,
अपना अधिकार ,
अपना हक़ ,
और अपनी सत्ता।
महत्ता वालों से पूछिए ,
क्या दे सकेंगे ,
उसे सत्ता !
या साल का एक दिन ,
उसके नाम कर ,
उसे बताते रहेंगे ,
उसकी महत्ता।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, March 7, 2018

अज्ञेय

A poem of Umesh chandra sriasvtava


अज्ञेय -
तुम ने क्या कर दिया !
ज्ञेयता का दोहन ,
कुछ इस प्रकार किया ,
कि तमाम-छंदमयता ही ,
क्षीर्ण होती जा रही है।
अब देखो - नए कवि ,
कैसी लिख रहे कविता।
क्षणिका की बानगी ,
नएपन के चक्कर में ,
सब कुछ नया ,
होता जा रहा।
विचार -खांचा ,
शब्द ,
बानगी ,
प्रवाह ,
सभी का लोप।
क्या-तुम अब भी ,
कहोगे-जहाँ हो तुम!
लेकिन-बानगी दी तुम्ही ने।
इसलिए तुम्हें आज ,
फिर से-परखा जाना चाहिए।
नए सरोकारों के सन्दर्भ में ,
देख रहे हो आज ,
कविता के क्षेत्र में ,
दो धाराएं-हो गयीं हैं विकसित। 
अब मंचीय कवि अलग ,
और गैर मंचीय कवि अलग।
यह फर्क बताता है ,
कि अब-कविता कहाँ खड़ी है।
चौराहे ,
और बंद कमरे की ,
इस कविता को ,
समझना होगा। 
तभी कुछ हो पायेगा ,
वरना-तुम्हारा आंदोलन ,
बेवजह , बेमानी ,
रह जाएगा।
अज्ञेय ,
आज पुनः ,
ज्ञेयता की दरकार है। 
वरना समाज की ,
फटकार झेलो तुम ,
और हम सब भी। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra sriasvtava 

Friday, March 2, 2018

होली गीत

A poem of Umesh chandra srivastava 


 बहुत नीक लागैय ,रंगों की होली ,
मस्ती की होली, ठिठोली की होली।
मौज की बोली 'औ' साली की गोली।
              बहुत नीक लागैय ,रंगों की होली।

दौड़ भाग देवरा करैय ,भौजी हैं डोली ,
साली उचक के डालैय रंगोली।
              बहुत नीक लागैय ,रंगों की होली ,

सुधियों में खोये गए बाबा भांगौड़ी ,
जेठ मारैय चुस्की-यह रंगों की होली ,
              बहुत नीक लागैय ,रंगों की होली ,

इस बार होली में ओनहूँ भी आये ,
मुंबई से रंगों की बोरी भी लाये ,
चहक खेलैय होली उनहूँ लगाए।
छूट उन्हैय पूरी-जहाँ तहाँ पोतैय ,
हर्षित उल्लास की यह रही बोली।
            बहुत नीक लागैय ,रंगों की होली ,

होली त्यौहार केवल प्रेम परस्पर ,
सीमा में होली तो देत है अक्सर ,
प्रेम की बोली 'औ' प्रेम  ठिठौली।
             बहुत नीक लागैय ,रंगों की होली।

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...