A poem of Umesh chandra srivastava
तू ही सदा उन्हें देती है ,
अमृत रस ‘औ’खान-पान।
तेरे आश्रित जीव जगत हैं ,
तू ही सबकी अन्नपूर्णा।
नाहक मुझे भाव तुम देते ,
प्रकृति तुम्हारा भव मंगल।
तुम बिन मैं तो सदा अधूरी ,
तुम मेरे सरताज रहो।
याद रहा है उर्बी तेरा ,
वह नर्तन , प्रत्यावर्तन।
जलामग्न सब भू , सृष्टि थी
,
तूने दिया पुनः नर तन।
माना सत्य कहा है तुमने ,
पर उसमें सहयोग तेरा।
बिन तेरे सहयोग प्रकृति ,
मैं ,
कुछ भी नहीं ,अस्तित्व नहीं।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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