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Saturday, May 26, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -11


A poem of Umesh chandra srivastava 

तू ही सदा उन्हें देती है ,
अमृत रस ‘औ’खान-पान। 
तेरे आश्रित जीव जगत हैं ,
तू ही सबकी अन्नपूर्णा। 

नाहक मुझे भाव तुम देते ,
प्रकृति तुम्हारा भव मंगल। 
तुम बिन मैं तो सदा अधूरी ,
तुम मेरे सरताज रहो। 

याद रहा है उर्बी तेरा ,
वह नर्तन , प्रत्यावर्तन। 
जलामग्न सब भू , सृष्टि थी ,
तूने दिया पुनः नर तन। 

माना सत्य कहा है तुमने ,
पर उसमें सहयोग तेरा। 
बिन तेरे सहयोग प्रकृति , मैं ,
कुछ भी नहीं ,अस्तित्व नहीं। 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

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