A poem of Umesh chandra srivastava
जल प्रपात सब , झंझा तेरे,
रूप-स्वरुप के हिस्से हैं।
जीव-जगत संतुलित जब होता ,
तब तुम एकदम अमृत हो।
रहन तुम्हारा प्रकृतमयी है ,
वैसे ही सब जीव रहें।
यही है 'मैसेज' सखे तुम्हारा ,
यही रास-रंग रूप हो तुम।
सज धज के जब पुरवाई सी ,
मचल-मचल के चलती हो।
रूप तुम्हारा खिल उठता है ,
आँचल जब सर-सर उड़ता।
उन्मादित हो , बहुजोर सी ,
इधर-उधर जब हंसती हो।
मन विभोर जीवों का होता ,
रहस्य बनी तुम रहती हो। (धारावाहिक , आगे कल )
जल प्रपात सब , झंझा तेरे,
रूप-स्वरुप के हिस्से हैं।
जीव-जगत संतुलित जब होता ,
तब तुम एकदम अमृत हो।
रहन तुम्हारा प्रकृतमयी है ,
वैसे ही सब जीव रहें।
यही है 'मैसेज' सखे तुम्हारा ,
यही रास-रंग रूप हो तुम।
सज धज के जब पुरवाई सी ,
मचल-मचल के चलती हो।
रूप तुम्हारा खिल उठता है ,
आँचल जब सर-सर उड़ता।
उन्मादित हो , बहुजोर सी ,
इधर-उधर जब हंसती हो।
मन विभोर जीवों का होता ,
रहस्य बनी तुम रहती हो। (धारावाहिक , आगे कल )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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