month vise

Monday, May 14, 2018

'प्रकृति' कविता संग्रह से - 3

A poem of Umesh chandra srivastava

जल प्रपात सब , झंझा तेरे,
रूप-स्वरुप के हिस्से हैं।
जीव-जगत संतुलित जब होता ,
तब तुम एकदम अमृत हो।

रहन तुम्हारा प्रकृतमयी है ,
वैसे ही सब जीव रहें।
यही है 'मैसेज' सखे तुम्हारा ,
यही रास-रंग रूप हो तुम।

सज धज के जब पुरवाई सी ,
मचल-मचल के चलती हो।
रूप तुम्हारा खिल उठता है ,
आँचल जब सर-सर उड़ता।

उन्मादित हो , बहुजोर सी ,
इधर-उधर जब हंसती हो।
मन विभोर जीवों का होता ,
रहस्य बनी तुम रहती हो। (धारावाहिक , आगे कल )



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

No comments:

Post a Comment

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...