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Monday, May 7, 2018

औरत के उसी जिस्म पर तुम मरे ,

A poem of  Umesh Chandra Srivastava

औरत के उसी जिस्म पर तुम मरे ,
जिस जिस्म से तुमने लिया है जन्म,
उसको मसला , दबाया , सताया बहुत।

उसको बदनाम करके वहाँ छोड़ कर,
सारे नाते-रिवाजों को सबतोड़ कर।
तुम महज़ एक स्वारथ के पुतले बने,
यह नहीं समझा , उसके ही बल पर तने।

तुमने औरत को केवल खिलौना समझ ,
उसके अरमानों से तुमने खेला बहुत।
अब कहें क्या अतीतों की दास्तानों को ,
देखलो उस अहिल्या के अपमान को।
क्या खता थी बताओ मगर धर्म वश ,
राम को वह रही जोहती उम्र भर।

इस तरह की कहानी बहुत है मगर ,
आज नारी चली है प्रगति की डगर।
पर यहां भी छली जा रही है बहुत ,
पीर सह के बनाती है अपनी डगर।

हो अगर दम तो तुम भी कहानी लिखो ,
नारी की बस व्ही सब निशानी लिखो।
रोज देखो चमकता है सूरज यहाँ,
नारी का तो महत्त्व बहुत है यहाँ।

पर सभी देखते-सुनते कहते नहीं ,
नारी ही है अमर द्वार माने नहीं।
उसको ताने से केवल नवाज़े सभी।

                     औरत के उसी जिस्म पर तुम मरे ,
                     जिस जिस्म से तुमने लिया है जन्म,
                     उसको मसला , दबाया , सताया बहुत।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of  Umesh Chandra Srivastava

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