A poem of Umesh chandra srivastava
प्रकृति तुम्हारी प्रकृति बताओ ,
कब से हुई हो निर्मित ?
कब से हो स्वच्छंद बताओ ,
कब से हो सुरभित ?
आल्हादित हो युग-युग से तुम ,
बिना थके तुम बनी हो चालित ?
रूप तुम्हारा मन भावन है ,
तुम पुलकित रहती हो कुलकित ?
रूप तुम्हारा सदा सुखद है ,
अंगड़ाई से करती विस्मृत?
पाँव तुम्हारे कहाँ प्रिये हैं ,
हाथ कहाँ है प्रकृति तुम्हारी ?
कान , नासिका , अधर कहाँ हैं ,
नयन तुम्हारे कहाँ है स्मृति ?
उदर , पीठ , मुख कहाँ तुम्हारे ,
जननी जन है द्वार कहाँ ?(धरावाहिक , आगे कल )
प्रकृति तुम्हारी प्रकृति बताओ ,
कब से हुई हो निर्मित ?
कब से हो स्वच्छंद बताओ ,
कब से हो सुरभित ?
आल्हादित हो युग-युग से तुम ,
बिना थके तुम बनी हो चालित ?
रूप तुम्हारा मन भावन है ,
तुम पुलकित रहती हो कुलकित ?
रूप तुम्हारा सदा सुखद है ,
अंगड़ाई से करती विस्मृत?
पाँव तुम्हारे कहाँ प्रिये हैं ,
हाथ कहाँ है प्रकृति तुम्हारी ?
कान , नासिका , अधर कहाँ हैं ,
नयन तुम्हारे कहाँ है स्मृति ?
उदर , पीठ , मुख कहाँ तुम्हारे ,
जननी जन है द्वार कहाँ ?(धरावाहिक , आगे कल )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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