A poem of Umesh chandra srivastava
जाके मन कछु नाहीं संदेहा , वह नर आई माघ कर सेवा ।
जनम मरण मुक्तन इहँ पाई , यही भूमि अतुलित हरषाई ।।
यही प्रयाग भूमी सुखदाई , वेद पुराण सबहि यह गाई ।
जो नर बसत प्रयाग-प्रयागा ,वह नर राम अनुज अनुरागा ।।
गावहि यहीं सब नर सुर संता , वेद पुराण यहां भगवंता ।
माघ माह भर सब सुर आवहिं , त्रिवेणी में सुखद नहावहिं ।।
जाके मन कछु नाहीं संदेहा , वह नर आई माघ कर सेवा ।
जनम मरण मुक्तन इहँ पाई , यही भूमि अतुलित हरषाई ।।
यही प्रयाग भूमी सुखदाई , वेद पुराण सबहि यह गाई ।
जो नर बसत प्रयाग-प्रयागा ,वह नर राम अनुज अनुरागा ।।
गावहि यहीं सब नर सुर संता , वेद पुराण यहां भगवंता ।
माघ माह भर सब सुर आवहिं , त्रिवेणी में सुखद नहावहिं ।।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
A poem of Umesh chandra srivastava
No comments:
Post a Comment