A poem of Umesh chandra srivastava
ढाई आखर ,
प्रेम खातिर ईश भी ,
जगदीश भी।
ढाई आखर ,
प्रेम खातिर ,
नराधम ,नर भिक्षु भी।
ढाई आखर ,
प्रेम खातिर,
पाप ,पुण्य का मर्म भी।
ढाई आखर ,
प्रेम खातिर ,
देहं भी ,संयोग भी।
ढाई आखर ,
प्रेम खातिर ,
मर रहे हैं जीव भी।
फिर विमर्षित,
क्यों भला हो ,
ढाई आखर की कला !
अजब की ,
यह बात यारों ,
ढाई आखर है बला।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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