A poem of Umesh chandra srivastava
व्यापक हो रहा ,
हर व्यक्ति ,
इसके भूगोल की पड़ताल में ,
दिख रहा।
अब दो रोटी नहीं ,
जिससे पेट तर हो।
अब भूख का भूगोल ,
समझना पड़ेगा।
पृथ्वी की ही तरह ,
विज्ञान वेत्ताओं को -
खगालना पड़ेगा ,
कि इसकी व्यापकता क्या है ?
यह भूख इतनी व्यापक ,
क्यों हो रही है ,
कि पेट ही नहीं भरता।
आदमी तरता रहता ,
सम्पूर्ण जीवन-
इसी की भक्की में ,
लेकिन भर नहीं पाता इसे।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
No comments:
Post a Comment