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Thursday, May 31, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -12


A Poem of Umesh chandra srivastava 

तुम प्रकृति , पुरुष स्वरूप हो ,
तुम जानते हो ‘बीज’ महत्व। 
बिना ‘बीज’ के निज वसुधा मैं ,
क्या कर लूंगी , सब जाने ?

नारी का अस्तित्व पुरुष से ,
पुरुष अधूरा है नारी बिन। 
जीवन के इस धुरी चक्र में ,
दोनों का सहयोग बड़ा है। 

जितने भी हैं जीव जगत में ,
जड़ , पदार्थ , हिम , बंजर भू।
हम दोनों की सभी प्रतीती ,
हम दोनों समभाव रहें। 

हम दोनों में झगड़ भी होता ,
नयनों से बहता स्रोता। 
पर हम सम्भल तुरंत ही जाते ,
क्योंकि हम दो एक ही हैं।   (धारावाहिक , आगे कल )


-उमेश चन्द्र श्रीवास्तव
 A Poem of Umesh chandra srivastava 

Saturday, May 26, 2018

‘प्रकृति’ कविता संग्रह से -11


A poem of Umesh chandra srivastava 

तू ही सदा उन्हें देती है ,
अमृत रस ‘औ’खान-पान। 
तेरे आश्रित जीव जगत हैं ,
तू ही सबकी अन्नपूर्णा। 

नाहक मुझे भाव तुम देते ,
प्रकृति तुम्हारा भव मंगल। 
तुम बिन मैं तो सदा अधूरी ,
तुम मेरे सरताज रहो। 

याद रहा है उर्बी तेरा ,
वह नर्तन , प्रत्यावर्तन। 
जलामग्न सब भू , सृष्टि थी ,
तूने दिया पुनः नर तन। 

माना सत्य कहा है तुमने ,
पर उसमें सहयोग तेरा। 
बिन तेरे सहयोग प्रकृति , मैं ,
कुछ भी नहीं ,अस्तित्व नहीं। 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Friday, May 25, 2018

'प्रकृति' कविता संग्रह से - 10

A peom of Umesh chandra srivastava


तेरे ऋणी, जगत, देव हैं ,
जिसने निर्मित किया संसार |
तू एकदम बस शांत भाव से ,
करती रहती सबका उद्धार |

तेरा रूप महाकर्षण है ,
उपवन , फूल , वनस्पतियाँ हैं |
न जाने किन-किन रत्नों की ,
खान रही सदियों से तुम |

उदधि , गंग–जमुन , गोदावरी ,
अंगणित नदियाँ आँचल में |
पोखरा , गड्ढे , पेड़-पौध से ,
तेरी गोद भरी हरदम |

तू ही देती हरियाली , खुशी ,
तेरे ही संतति हैं तेरे |
निस दिन पहर-पहर तुमको वह,
माँ का ही दर्जा देते हैं |(धारावाहिक , आगे कल)


 -उमेश चन्द्र श्रीवास्तव 
A peom of Umesh chandra srivastava 

Thursday, May 24, 2018

'प्रकृति' कविता संग्रह से - 9

A poem of Umesh chandra srivastava


अगर तुम्हारा साथ न मिलता ,
तो मेरा अस्तित्व कहाँ।
बहुत घूमता शोर मचता ,
पर तुम एक जगह स्थिर।

माँ का दर्जा तुमने पाया ,
सत्य तुम्हारा आकर्षण।
तेरे बिन यह जगत अधूरा ,
तेरा ही सब प्रत्याकर्षण।

धरती , धरा , वसुधा ,वसुंधरा ,
न जाने कितने हैं नाम। 
पर यह सत्य बात पहचानों ,
पूरे जग की तू आधार।

तुझ पर डोले लम्पट , कामी ,
साधु-संत और मनुजाधार।
लेकिन तुम खामोश ही रहती ,
विचरण करने देती सुखसार। (धारावाहिक , आगे कल )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, May 23, 2018

'प्रकृति' कविता संग्रह से - 8

A poem of Umesh chandra srivastava

प्रकृति तुम्हारा आकर्षण है ,
युग-युग से सुन्दरतम तुम।
जंतु भले यह प्रगट न कर सकें ,
पर मानव तुमसे अविभूत।

तुम्हीं कराती काम वो सारे ,
तुम्हीं दिखाती सुंदरता।
तुम पर मुग्ध हुआ जो प्राणी ,
बना विश्व का वह योद्धा।

युद्ध कराती ,विरह सताती ,
तेरे ही करवट की धुन।
नित्य तुम्हारा भाव निखरता ,
तुम तो हो कुसुमित प्रियहिम।

बहुत बखाना उर्बी तुमने ,
अब तुम बात हमारी सुनो।
तुम पर हूँ अनुरक्त युगों से ,
तुम ही तो आधार मेरी। (धारावाहिक , आगे कल )



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, May 22, 2018

'प्रकृति' कविता संग्रह से - 7

A poem of  Umesh chandra srivastava



अंग-अंग-अंगड़ाई तुम हो ,
मन-मन-मन मनभावन तुम।
नभमंडल की लाली तुम हो ,
तुम्ही मही की हरियाली।

मन के सारे भाव जगाती ,
मन को कर देती हर्षित।
राग-रंग सुख साज तुम्हीं हो ,
तुम ही बन, उपवन , क्यारी।

कहाँ-कहाँ तक बात बताऊं ,
तुम हो तन-मन की लाली।
काले घन सा बादल तुम हो ,
तुम ही रूप की मतवाली।

धड़-धड़-धड़ धड़ाम भी तुम हो ,
तुम हो थर-थर थाती तुम।
हर-हर-हर कर हहरा जाती हो ,
तुम्हीं हो प्यारी , पानी तुम।(धारावाहिक आगे कल )



उमेश चंद्र श्रीवास्तव - 
A poem of  Umesh chandra srivastava 

Monday, May 21, 2018

'प्रकृति' कविता संग्रह से - 6

A poem of Umesh chandra srivastava

नाम अनंत तुम्हारा जग में ,
तुम बयार हो , तुम सरिता।
मन के सारे भाव तुम्हीं हो ,
तुम ही जीव जगत गर्विता।

तुम्हीं धुप हो , तुम्हीं अँधेरा ,
तुम्हीं साँझ हो , तुम ही सुबह।
 तप्त दोपहरी , रात तुम्हीं हो ,
तुम ही मध्य हो , तुम हो उदिता।

सर-सर-सर बयार तुम्हीं हो ,
धक-धक-धक अग्नि तुम हो।
शत-शत शीतल रूप तुम्हीं हो ,
तुम ही हो पावन सुर सरिता।

अंग-अंग सब रोम तुम्हीं हो ,
धक्-धक्-धक् धड़कन हो तुम।
थर-थर-थर कम्पन भी तुम हो ,
खिल-खिल-खिल खिलना हो तुम।


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, May 16, 2018

'प्रकृति' कविता संग्रह से - 5

A poem of Umesh chandra srivastava


प्रेम , सुधा , करुणा ही तुम हो ,
तुम्ही विरह , संयोग हो तुम।
तुम्ही प्रेम की प्रियतम मधुमय ,
तुम्हीं ह्रदय का कम्पन हो।

तुम्हीं मुखों की सुन्दर लाली ,
तुम्हीं अधर की प्यास हो।
तुम्हीं बदन की मदन बनी हो ,
तुम्हीं रती , मधुमास हो।

तुम्हीं लिंग और योनि तुम्हीं हो ,
काम और भोग हो तुम।
प्रकृति तुम्हारा जग नर्तन है ,
तुम्हीं प्रकृति परिवर्तन हो।

तुम्हीं राम हो ,तुम्हीं कृष्ण हो ,
तुम्हीं रुक्मणि 'औ' सीता।
तुम्हीं ब्रह्माणी , तुम्हीं सती हो ,
तुम्हीं हो दुर्गा , चंडी हो तुम। ( धारावाहिक , आगे कल )





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Tuesday, May 15, 2018

'प्रकृति' कविता संग्रह से - 4

A poem of Umesh chandra srivastava

तुम ही मन में वेग जगाती ,
आशाओं की सरसों फूल।
इधर-उधर जीवन मन हो तो ,
प्रेम सुधा की भरती धूल।

उच्छ्वासें तुमसे ही बनती ,
मन भावन है रूप तेरा।
मद-मादन सी थिरकन तेरी ,
कितना सुन्दर मुख तेरा।

तुम हो अमर , अमरावती सी ,
ठुमुक-ठुमुक के चलती हो।
मन में बरबस भाव प्रेम का ,
सागर हिलकोरे लेता।

क्या-क्या बात बताऊं तुमको ,
रूप-रास की गागर तुम।
पूरा का पूरा सागर हो ,
रूप रास की आगर  तुम। (धारावाहिक , आगे कल )



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, May 14, 2018

'प्रकृति' कविता संग्रह से - 3

A poem of Umesh chandra srivastava

जल प्रपात सब , झंझा तेरे,
रूप-स्वरुप के हिस्से हैं।
जीव-जगत संतुलित जब होता ,
तब तुम एकदम अमृत हो।

रहन तुम्हारा प्रकृतमयी है ,
वैसे ही सब जीव रहें।
यही है 'मैसेज' सखे तुम्हारा ,
यही रास-रंग रूप हो तुम।

सज धज के जब पुरवाई सी ,
मचल-मचल के चलती हो।
रूप तुम्हारा खिल उठता है ,
आँचल जब सर-सर उड़ता।

उन्मादित हो , बहुजोर सी ,
इधर-उधर जब हंसती हो।
मन विभोर जीवों का होता ,
रहस्य बनी तुम रहती हो। (धारावाहिक , आगे कल )



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Thursday, May 10, 2018

'प्रकृति' काव्य संग्रह से -2

A poem of Umesh chandra srivastava

क्या तुम भी भूमी जीवों सी ,
या कोई हो जंतु की भांति?
जंगल , जल और रुधिर कहाँ है ,
कहाँ तुम्हारे रीति-रिवाज?

मौन खड़ा नित तुम्हें निहारूं ,
सुन्दर , रम्य , सुदूर-मधुर?
जहां-जहां भी जाऊं जब-जब ,
तब-तब तुम सुन्दर लगती?

मौन सम्भाषण मौनमयी है ,
मौनमयी प्रतिवेदन है?
पल-पल , छिन-छिन भाव तुम्हारे ,
तुम कितनी संवेदन हो?

मन भीतर यह प्रश्न उमड़ता ,
कैसे , कौन , कहाँ से तुम?
वसुधा को पीयूष पिलाती ,
कौन वातायन आती तुम?                (धारावाहिक आगे कल )




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava

Wednesday, May 9, 2018

'प्रकृति' काव्य संग्रह से

A poem of Umesh chandra srivastava

प्रकृति तुम्हारी प्रकृति बताओ ,
कब से हुई हो निर्मित ?
कब से हो स्वच्छंद बताओ ,
कब से हो सुरभित ?

आल्हादित हो युग-युग से तुम ,
बिना थके तुम बनी हो चालित ?
रूप तुम्हारा मन भावन है ,
तुम पुलकित रहती हो कुलकित ?

रूप तुम्हारा सदा सुखद है ,
अंगड़ाई से करती विस्मृत?
पाँव तुम्हारे कहाँ प्रिये हैं ,
हाथ कहाँ है प्रकृति तुम्हारी ?

कान , नासिका , अधर कहाँ हैं ,
नयन तुम्हारे कहाँ है स्मृति ?
उदर , पीठ , मुख कहाँ तुम्हारे ,
जननी जन है द्वार कहाँ ?(धरावाहिक , आगे कल )





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Monday, May 7, 2018

औरत के उसी जिस्म पर तुम मरे ,

A poem of  Umesh Chandra Srivastava

औरत के उसी जिस्म पर तुम मरे ,
जिस जिस्म से तुमने लिया है जन्म,
उसको मसला , दबाया , सताया बहुत।

उसको बदनाम करके वहाँ छोड़ कर,
सारे नाते-रिवाजों को सबतोड़ कर।
तुम महज़ एक स्वारथ के पुतले बने,
यह नहीं समझा , उसके ही बल पर तने।

तुमने औरत को केवल खिलौना समझ ,
उसके अरमानों से तुमने खेला बहुत।
अब कहें क्या अतीतों की दास्तानों को ,
देखलो उस अहिल्या के अपमान को।
क्या खता थी बताओ मगर धर्म वश ,
राम को वह रही जोहती उम्र भर।

इस तरह की कहानी बहुत है मगर ,
आज नारी चली है प्रगति की डगर।
पर यहां भी छली जा रही है बहुत ,
पीर सह के बनाती है अपनी डगर।

हो अगर दम तो तुम भी कहानी लिखो ,
नारी की बस व्ही सब निशानी लिखो।
रोज देखो चमकता है सूरज यहाँ,
नारी का तो महत्त्व बहुत है यहाँ।

पर सभी देखते-सुनते कहते नहीं ,
नारी ही है अमर द्वार माने नहीं।
उसको ताने से केवल नवाज़े सभी।

                     औरत के उसी जिस्म पर तुम मरे ,
                     जिस जिस्म से तुमने लिया है जन्म,
                     उसको मसला , दबाया , सताया बहुत।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of  Umesh Chandra Srivastava

Thursday, May 3, 2018

हे तुम मेरी प्राण-हाँण सब

A poem of Umesh chandra srivastava 


हे तुम मेरी प्राण-हाँण सब ,
रक्त-मांस-पेशी हो तुम। 
अंदर-बाहर की करुणा तुम ,
भाव-स्वभाव में गुमसुम तुम। 

कहो , कहाँ तुम खोज रही हो ,
सब आनंद तो भीतर है। 
रास-रंग-सब तरल-ठोस तुम,
तुम-ही-तुम केवल तुम हो। 

कहाँ ढूंढती जंगल , उपवन ,
शहर-गाँव पखडंडी पर। 
गगन-धरा सब मस्त-पवन में ,
जल , उर्बी में तुम गुमसुम। 

अरे ! प्राण की वेग तुम ही हो ,
तुम ही हो संवेदन सब। 
सारे रस की खान तुम ही हो ,
तुम ही हो सकल ब्रह्माण्ड। 

 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

Wednesday, May 2, 2018

यही तो है लोकतंत्र

लगे हैं पेड़ पर ,
करोड़ पत्ते !
अब गिनो ,
धुनों अपना सिर।
गाँव-गाँव पहुँच गयी बिजली ,
अब ढूंढो किस गाँव नहीं पहुंची।
'ऐप्प' वह भी दिखा रहा गांव ,
जहां खम्भे नहीं पहुंचे।
कमाल है जुमला ,
कमाल हैं लोग ,
और कमाल है बयानबाजी।
यही तो है लोकतंत्र !



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

Tuesday, May 1, 2018

मजबूर नहीं , मजदूर हूँ मैं

A poem of Umesh chandra sriavstava
(मजदूर दिवस पर विशेष )

मजबूर नहीं , मजदूर हूँ मैं ,
है आज दिवस मकबूल हूँ मैं।
सदियों से हमारा महत्त्व बड़ा ,
कोई माने न माने-मैं हूँ तू खड़ा।

सब लोग लोग कहें -मुझसे दुनिया ,
पर मान नहीं-अब तक है हुआ।
मैं चाहता हूँ-सब लोग कहें।
जीवन के सरसाये में रहें।

है कौन भला-जो बगैर मेरे ,
संसार में मेरा रूप ढला ।
अधिकार हमारा-रहा हरदम ,
हम मौन रहे , यह कौन कहे।

तुम गर हो हिमायती मेरे सखा ,
तो बुलंद करो-मेरा रुख हो बुलंद।



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra sriavstava 

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...