ईमानदार बनने की सीख देते हो।
कहते हो , आगे बढने का ,
यह गहना है।
इसी के हद में रहना ,
अगर आगे है बढना।
पर मैं देखता हूँ कि तुम ,
तुम तो इमानदार नहीं लगते।
सरे छल-प्रपंच अपनाते हो ,
अपना कद ,अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए।
तुम तो झूठ भी ,
बड़े धड़ल्ले से बोलते हो।
और दूसरे से कहते-फिरते हो।
ईमानदार बनो ,
सत्य बोलो ,
आपस में प्रेम करो।
आखिर ऐसा क्यों करते हो तुम ,
क्या प्रगतिशीलता का ,
आज के समय में ,
यही है मायने !
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
No comments:
Post a Comment