A poem of Umesh chandra srivastava
१.
रंगीन सपनों का गुलदस्ता सजाये ,
बैठी वह , कि तभी ,
प्रथम रात्रि के ,
प्रथम मिलन की बेल आ गयी।
वह अकपकाई ।
उठी-और औचक खड़ी हो गयी।
कि तभी उसने देखा-उसका वह ,
लड़खड़ाता बिस्तर पर गिरा ,
फिर सो गया।
उसे लगा की उसका वह प्रथम गुलदस्ता ,
भरभरा गया।
२.
घने रात के सन्नाटे में ,
वह भी चुपचाप ,
लाइट बुझा सो गयी ,
कि जैसे उसके -
अरमान की गांठें ,
बिन खुले ही ,
कस दी गयी हो। (शेष कल )
१.
रंगीन सपनों का गुलदस्ता सजाये ,
बैठी वह , कि तभी ,
प्रथम रात्रि के ,
प्रथम मिलन की बेल आ गयी।
वह अकपकाई ।
उठी-और औचक खड़ी हो गयी।
कि तभी उसने देखा-उसका वह ,
लड़खड़ाता बिस्तर पर गिरा ,
फिर सो गया।
उसे लगा की उसका वह प्रथम गुलदस्ता ,
भरभरा गया।
२.
घने रात के सन्नाटे में ,
वह भी चुपचाप ,
लाइट बुझा सो गयी ,
कि जैसे उसके -
अरमान की गांठें ,
बिन खुले ही ,
कस दी गयी हो। (शेष कल )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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