A poem of Umesh chandra srivastava
इस सूने-सूने से घर में ,
तेरी आहट प्रतिपल रहती।
मन मसोस कर रह जाता हूँ ,
तेरी चाहत प्रतिपल रहती।
भाव-भवन में स्मृति ताज़ी ,
सावन मौसम है यह पाजी।
भादव मास रसायन देता ,
विगलन कहाँ-कहाँ हंस कहती।
बड़े चाव से रस मर्दन कर ,
बड़े भाव से चितवन हर पल।
लुभा-लुभा अब भी जाता है ,
अकुलाहट पल-पल ही रहती।
मौसम का जो ऋतु छाया है ,
नवल-नवेली चाहत हंसती।
कुम्हलाया तन-मन यह सारा ,
ज़िम्मेदारी हर पल डसती।
इस सूने-सूने से घर में ,
तेरी आहट प्रतिपल रहती।
मन मसोस कर रह जाता हूँ ,
तेरी चाहत प्रतिपल रहती।
भाव-भवन में स्मृति ताज़ी ,
सावन मौसम है यह पाजी।
भादव मास रसायन देता ,
विगलन कहाँ-कहाँ हंस कहती।
बड़े चाव से रस मर्दन कर ,
बड़े भाव से चितवन हर पल।
लुभा-लुभा अब भी जाता है ,
अकुलाहट पल-पल ही रहती।
मौसम का जो ऋतु छाया है ,
नवल-नवेली चाहत हंसती।
कुम्हलाया तन-मन यह सारा ,
ज़िम्मेदारी हर पल डसती।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava
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