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Saturday, August 18, 2018

घसियारिन

A poem of Umesh chandra srivastava


घसियारिन है ,
घांस छीलती।
बच्चे दौड़-दौड़ आते ,
रोते-चिल्लाते वह जी भर ,
माँ का अंचल खींच कहते -
माँ चल घर को,
भूख लगी है। 
रोटी दे , तू रोटी दे।
माँ बरबस ही ,
डांट-डंपटती ,
जा घर में रोटी रक्खी है।
पर जिद वश बच्चे तो सरे ,
माँ के पास सुबक होते।
अंत में माँ है ,
माँ की ममता ,
घास छोड़ घर जाती है ,
बच्चों को वह रोटी देकर ,
पुनः घास रम जाती है।
माँ का यह तो प्रेम निराला ,
गाओ आल्हा , गाओ गीत।
माँ से परम कौन है जग में ,
माँ जैसा सुन्दर सा मीत।
                 घसियारिन है ,
                 घांस छीलती।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
A poem of Umesh chandra srivastava 

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