month vise

Thursday, August 30, 2018

प्रथम-प्रथम ( भाग २ )

A poem of Umesh chandra srivastava

(३)
मध्य रात्रि के बाद ,
उसके-उसकी तन्द्रा टूटी ,
वह कुछ होश में आया।
फटी आँखों से ,
उसने -उसे देखा ,
उठाया और ज़मीन से ,
बिस्तर पर लाया।
फिर क्या था ,
जब तक बातें और बढ़तीं ,
कि बाहर से ,
चिड़ियों की चहचहाहट ,
शोर गुल ,
प्रभात बेला में  गया।

(४)
खुले कमरे में ,
परिहास का दौर शुरू।
अचकचाई-सपकपाई ,
वह क्या कहे ?
अरमानों के गुलदस्ते का ,
कौन सा बंद खोले ?
क्या बोले-क्या तौले ?
वह रही खामोश ,
और दौर वह ,
एकतरफा ,
ठिठौली का चलता दौर।
जैसे बीती रात ,
एकतरफा दौर चला।
और दोनों ,
नींद की आगोश में ,
समाये-
अरमानों की गठरी में ,
लुकाए पड़े रहे।

(५)
रंगीन सपने का ,
वह प्रथम पहर ,
अब न आने वाला।
वैसे तो रिश्ते बनेंगे ,
ज़रूर आगे।
लेकिन वह उन्मेष ,
वह उत्तेजना ,
वह दर्पण ,
कहाँ बन पायेगा।
स्वप्न की गठरी ,
ठूठ की ठूठ ,
बंधी रह जायेगी ,
और पूरा जीवन कट जाएगा।







उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
A poem of Umesh chandra srivastava 

No comments:

Post a Comment

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...